विद्योत्तमा के लेख का पन्ना
लेखिका - सुशीला जोशी 'विद्योत्तमा'
-मुंशी प्रेमचंद का यथार्थ मेरी दृष्टि में ..... ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
मुंशी प्रेमचंद की जब भी कोई विधा पढ़ने को मिली ,उसमें मुझे भारत ही नही सम्पूर्ण धरा का यथार्थ नजर आया । सम्पन्न देशों में स्तर वैभिमन्य पर्याप्त देखने को मिलता है । झुग्गी झोपडियो में रहने वाले समुदाय से बहुत निकट से परिचय हुआ । भारत जैसे शोषित देश आतताइयों से जूझते हुए समाज के पूर्ण सौंदर्य के दर्शन हुए ।शायद इसीलिए नैतिक ,आर्थिक ,पारिवारिक ,सामाजिक व सांस्कतिक आंदोलनों के इतिहासों का परिचय संज्ञान में आया है । लगभग हर रचना में व्यवस्था दोष के प्रति उनके स्वर विद्रोही दिखाई पड़े । इसीलिए उनकी रचनाओं का केंद्र भारत के उपेक्षित गाँव ,वर्ण, जाति व मनुष्य रहा है । यद्यपि कहीं कहीं यथार्थ चित्रण के साथ साथ मुंशी जी की लेखनी आदर्शवादी भी बन पड़ी । मेरे विचार में जिसके पीछे उनका दृष्टिकोण पवित्रताओं ,पुण्यो व सांस्कृतिक व धार्मिक विश्वासों के प्रति जागृति लाना हो सकता है किंतु कर्मभूमि से कायाकल्प तक आते आते वे यथार्थवादी ही अधिक सिद्ध हुए ।
प्रेमचंद को पढ़ने के बाद ज्ञात हुआ कि उनका व्यक्तिगत जीवन अनवरत संघर्षो की कहानी रहा है ।अपने स्त्वाधिकार और स्वाभिमान की निरन्तरता के लिए वे सर्वदा संघर्षरत रहे । उनका वास्तविक नाम धनपतराय था किंतु कभी धनपति नही बन सके और न ही किसी को धनपति बनने की राय ही दे पाए ।उनका जन्म एक बेहद पिछड़े बनारस के पास लमही गाँव में हुआ था जहाँ हमेशा गरीबी ,शोषण व अभाव का नाच होता रहा पिता अजायबराम गाँव के डाकखाने में मात्र 20₹ माह के वेतन पर क्लर्क के पद पर कार्यरत थे । इसीसे मुफ़लसी से हाथ मिला खुश रहने की आदत डाल ली थी । आर्थिक कठिनाई को पीछे धकेलने में कभी मुंशी जी को मात्र पाँच रुपये ट्यूशन पढ़ाना पड़ता तो कभी अठन्नी का ऋण चुकाने व किसी बजाज से उधार लिए कपड़ो का बिल चुकता न कर सकने के कारण उसी की दुकान तरफ से गुजरना ही छोड़ना पड़ता । कभी किसी वकील के तबेले ऊपर टांट बिछा कर पड़ना पड़ता तो कभी दस पन्द्रह कोस पैदल चल घर आना पड़ता । इसी यथार्थवाद को भोगते हुए लिखने के कारण उनकी लेखनी ऋण-समस्या,शोषण,गाँव व अभाव के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई पड़ी । अतः मेरा मत यह है कि मुंशी जी के यथार्थ चित्रण का कारण उनको अपनी भोगवादिता है ।
प्रेमचंद की लगभग सभी उपन्यासों व कथा-साहित्य में उस व्यवस्था दोष के दर्शन होते हैं जो आज भी पूरे भारत मे व्याप्त हैं ।इसीलिए उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण अपना कर व्यवस्था -दोष के कारण बुरे लगने वाले पात्रों को भी सहज मानवीय संवेदनाओं और अपने लेखन को अव्यवस्थाओं को सुव्यवस्थित करने तथा सामाजिक ,आर्थिक ,नैतिक ,सांस्कृतिक व राजनीतिक मूल्यों की पुनर्प्राप्ति और रक्षा के आंदोलनों को अपने साहित्य का इतिहास बना डाला । इसके साथ ही समूचे भारत जीवन की समस्या ,इच्छा व आकांक्षाओं की स्पष्ट झाँकी के चितेरे बन बैठे ।दीन हीन किसानों ,ग्रामीणों व शोषितों की दलित अवस्था का मार्मिक चित्रण उनके साहित्य का वैशिष्ट्य बन गया । निर्मल ,गबन,गोदान ,पूस की रात ,कफ़न आदि के चरित्र इसके ज्वलन्त उदाहरण है ।
प्रेमचंद जी के कथानक सीधे जीवन को विभिन्न क्षेत्रों से उठाए गए हैं । उनके उपन्यासों व कहानियों के विषय निम्न या मध्य वर्गीय जीवन ही रहे। इसीलिए उनमें वायवीयता व कृत्रिमता से बहुत दूर लगते हैं । आत्माराम ,शतरंज के खिलाड़ी ,कफ़न ,पूस की रात आदि कहानियों में उनकी सामयिक राजनीति व सामाजिक समस्याओं का चित्रण सर्वत्र बिखरा पड़ा सा लगता है । रंगभूमि व गोदान जैसे उपन्यासों में दो तीन कथानकों का समावेश भी दिखाई देता है । इसलिए वे अपने कथानकों का उचित विकास भी नही कर पाए हैं । इसके पीछे शायद उनका उद्देश्य समाज सुधार ,ग्रामोत्थान या फिर दीन हीन किसानों व मजदूरों की जर्जर स्थिति को प्रकाश में लाना था । समसामयिक समस्याओं के विश्लेषण हेतु उन्होंने गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप हृदय परिवर्तन व ट्रस्टीशिप जैसे सिद्धान्तों का प्रयोग कर कथानकों की समाजिक उपयोगिता को बढ़ावा देना था । इसी प्रयास व सूझ -बूझ के कारण प्रेमचंद जो उपन्यास -सम्राट बनने में सक्षम हो सके । निम्न वर्ग के प्रतिनिधि बन सके तभी तो पूरा एक युग ,एक शताब्दी गुजर जाने के बाद भी हिंदी साहित्य के आज भी स्तम्भ माने जाते है ।
कथानकों की भांति प्रेमचंद जी के पात्र भी अत्यंत सजीव ,सामयिक व व्यवहारिक रहें हैं । होरी हो या कफ़न का माधव ,पूस की रात का हल्कू हो या फिर मिस पद्मा का प्रसाद सभी समष्टि का प्रतिनिधित्व करते हुए अपना परिचय देते नजर आते है । हर पात्र अपनी निश्चित अनिवार्यता में जीते से दिखाई देते हैं । इसीलिए होरी और माधव को आज तक कोई नही भुला पाया ।
कहीं कहीं उनके उपन्यासों में पात्रों की भीड़ नजर आती है । जो पर्याप्त भौतिक लगती है ।किंतु उस भीड़ में अकस्मात अकारण अनेक पात्रों की मृत्यु अवश्य कृत्रिम लगती है जो बहुत अखरती है । गबन की वेश्या जोहरा सामान्य धरातल पर आ कर भी समाज द्वारा स्वीकृत किये जाने के भय से गंगा में बहा दी जाती है ।इसका कारण कथानक के प्रसार के समय मुंशी जी द्वारा पात्रों की भीड़ में छटनी कराना लगता है क्योकि शायद अंत तक लेखक उस भीड़ के साथ चलना सम्भव नही लगता ,फिर भी कहना पड़ेगा कि कभी कभी इस प्रकार की घटनाएँ अनिवार्य भी लगती है जैसे गबन की जोहरा ।
संवाद योजना के धरातल पर प्रेमचंद जी काफी सशक्त दिखाई देते हैं । उनके साहित्य का कथावस्तु विकास पात्रों के अंतर व वाह्य चित्रण को प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ व सक्षम दिखाई पड़ता है ।संवाद सरल ,सर्सव संक्षिप्त होते हुए भी कहीं कहीं वैचारिक स्तिथि भी भाषण के समान लगती है ।गोदान के मेहता के संवाद इसका एक उदाहरण है ।संवाद में सूक्ति के प्रयोग के कारण सरस् व महत्वपूर्ण बन पड़े ।
देश काल व वातावरण की दृष्टि से भी प्रेमचंद की लेखनी एकदम सटीक है। उनके साहित्य में देश काल को अमरत्व प्राप्त है ।उनके कथानक के वातावरण में पात्रों की समस्या ,अवश्यताएँ व उनका समाधान बड़ी कुशलता से उभार पाए हैं शायद इसीलिए उनका साहित्य बोलते युग का सा लगता है ।
उनके चित्रण वर्णनात्मक होते हुए भी एक पूरे विश्व का भूगोल लगता है जो अपनी कहानी आप कहता सा लगता है ।
प्रेमचंद जी आम जनता के लेखक थे इसीलिए उन्होंने संस्कृति निष्ठ या पुस्तकीय भाषा को छोड़ कर एतिहासिक वर्णनात्मक भाषा का प्रयोग किया है । कहीं कहीं अपने साहित्य में वह स्वयं परिलक्षित होते है । शायद इसका कारण उनके मन मे जीवन और समाज द्वारा भोगे गए यथार्थ की पीड़ा हो सकती है ।
सुशीला जोशी, विद्योत्तमा
मुजफ्फरनगर उप्र