"किसान"
विधाता छंद गीत
दिवाकर की तपन सहते अथक दिन भर लगे रहते|
मिले दो चार ही दाने कृषक पथ पर डटे रहते ||
सताता है कभी सूखा कभी पाला कभी ओला |
नजर फिर भी फसल पर है मिले दो - चार ही तोला ||
बना तरु को सुखद आलय विहसते पीर को सहते|
मिले दो चार ही दाना कृषक पथ पर डटे रहते ||
बरसती धूप या बूँदे कृषक सब झेल जाते हैं|
उपज की हार को भी वे जुआ -सा खेल जाते है||
गरीबी की व्यथा अपनी किसी से हैं नही कहते|
मिले दो - चार ही दाने कृषक पथ पर डटे रहते ||
कृषक की लालसा केवल धरा उगले हरा सोना |
मिले रोटी सभी जन को नहीं हो भूख का रोना||
मगर कुछ कर्ज में डूबे स्वयं को भी यहाँ दहते|
मिले दो -चार ही दाने कृषक पथ पर डटे रहते |
स्वरचित एवं मौलिक
तामेश्वर शुक्ल 'तारक'
सतना (म.प्र.)
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