*नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और झारखण्ड*(आलेख) ममता बैनर्जी मंजरी
कभी स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस झारखण्ड के टाटा स्टील यूनियन के प्रेजिडेंट के पद पर थे।बाद में उनकी सिंह गर्जना राँची की पहाड़ियों के सीने में सीधे आ टकराई थी।समय था सन 1940 में रामगढ़ में 53 वें अधिवेशन का।यह वही समय था जब नेताजी अपने ओजपूर्ण भाषण से रामगढ़ की जनता के हृदय में ओज,उमंग,
उत्साह और शौर्य का संचार किए थे।
"दिल्ली चलो"-का नारा लगाते हुए मार्च की शुरुआत उन्होनें यही से की थी और उनके साथ कदम मिलाकर चल पड़े थे उनके परम मित्र श्रीमान् फणीन्द्रनाथ आयकत डॉ. एफ. एन. चटर्जी और डॉ. एस. मुखर्जी,चेला स्वरूप मुरली मनोहर बोस,यदुगोपाल मुखर्जी सहित हजारों झारखण्ड ( तत्कालीन बिहार )की जनता।
सबके आँखों में एक ही सपना था-भारत की आजादी।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नेताजी कई बार झारखण्ड आए।
उन दिनों ब्रॉड गेज लाइन नहीं होने के कारण उनकी ट्रेन चक्रधरपुर में ही रुकती थी। नेताजी वहीं उतरते और अपने राँची के मित्र डॉ. पी.एन.चटर्जी की फिएट कार में चढ़कर वन्य संस्कृति की रुपहली तस्वीर देखते -देखते सीधे राँची के लालपुर स्थित फणीन्द्रनाथ आयकत जी के बंगले में पधारते।फणीन्द्रनाथ आयकत जी सपरिवार नेताजी का गर्मजोशी के साथ स्वागत करते और नेताजी के यात्रा की थकान पल भर में उड़नछू हो जाती। घर की महिलाएँ नेताजी के सामने पारंपरिक भोजन की थालियाँ परोसती।उसके बाद शुरू होती रामगढ़ अधिवेशन की रूपरेखा तैयार करने का सिलसिला। इस महान वार्ता में नेताजी के साथ शामिल होते उनके परम मित्र फणीन्द्रनाथ आयकत जी,डॉ. एफ. एन. चटर्जी,डॉ. एस. मुखर्जी और कई आत्मीय जन।
रामगढ़ अधिवेशन के लिए प्रचूर मात्रा में धनराशि की जरूरत थी।
कहाँ से जुटेगी धनराशि ?एक बड़ा प्रश्न चिन्ह सामने खड़ा था।
पेशे से कांट्रेक्टर फणीन्द्रनाथ जी आगे आए और इस महत काम में नेताजी का साथ देने का संकल्प लिया। हालाँकि अंग्रेजों ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राँची बुलाकर 3.5 एकड़ परिसर वाला बड़ा बंगला में उनके ठहरने की व्यवस्था कर रायबहादुर की पदवी से नवाजा था लेकिन उन्होनें देश की आजादी के लिए नेताजी का साथ देना अपना पहला कर्त्यव्य समझा और चालीस हजार की धनराशि दान में दे दी।
रामगढ़ अधिवेशन की तैयारियाँ होने लगी।इसी बीच राँची के कचहरी रोड स्थित स्वतन्त्रता सेनानी अब्दुल बारी पार्क में नेताजी का नागरिक अभिनंदन किया गया और फिरायालाल के निकट लोहरदगा लॉज में उन्होंने कई साहित्यकारों और शिक्षाविदों के साथ बैठक की।
राँची की जनता नेताजी से मिलकर मानो निहाल हुई।
जैसे-जैसे अधिवेशन का समय करीब आ रहा था वैसे-वैसे बैठकों का सिलसिला बढ़ता गया।नेताजी अपने तथाकथित मित्रों के साथ
हजारीबाग गए और तीन दिनों तक वहाँ स्थित बी.एन. घोष लॉज में ठहरकर रामगढ़ और खूंटी के देशभक्तों से मिले।बैठके की।
रामगढ़ का अधिवेशन सफल रहा और नेताजी अपने घर वापस लौटे।
इसके बाद नेताजी पुनः झारखण्ड पधारे लेकिन इस बार उनका ठिकाना झरिया और धनबाद रहा। यहाँ रहकर उन्होनें धनबाद की जनता के हृदय में आजादी की लौ जलाई ।
कभी कॉस्मो पॉलीटन होटल में रहकर तो कभी धनबाद के स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्रसाद जी के घर पर स्वाधीनता आंदोलन की रणनीति बनाई।कॉस्मो पॉलीटन होटल के संचालक भी इनके खास करीबी रहे।
नेताजी की इच्छा थी कि दोनों उनके साथ जर्मनी जाए मगर धनबाद में आंदोलन की गति तेज करने के लिए वे धनबाद में ही रुकना वाजिब समझा और नेताजी 28 जनवरी 1941 में एक बैलगाड़ी पर सवार होकर गोमो के लिए रवाना हुए। गोमो के पुराना बाजार में स्थित अब्दुल्ला के घर में रुककर इन्होनें स्वतन्त्रता आंदोलन सम्बंधित कार्यक्रम की तैयार रूपरेखा पर विचार-विमर्श किया और एकदिन काबुलीवाला का पोशाक धारण कर गोमो स्टेशन में वे पेशावर एक्सप्रेस (आज के कालका एक्सप्रेस ) में सवार हुए उसके बाद कहां गए इसका पता आज तक नहीं चल सका। कहा जाता है कि कालका मेल से वो पहले दिल्ली उतरे. वहाँ से पेशावर होते हुए काबुल पहुंचे। वहाँ से बर्लिन और कुछ समय बाद पनडुब्बी का सफ़र तय कर जापान पहुंचे।
जहाँ भी पहुँचें होंगे नेता जी लेकिन भारतीय जनता पलक-पाँवड़े बिछाकर इनका इंतजार करती रही।इंतजार करते रहे झारखण्ड में रहनेवाले इनके तथाकथित मित्रमण्डली और लाखों चहेते।
आज भी झारखण्ड की पहाड़ियों और जंगलों में इनकी सिंह-गर्जना की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है- "दिल्ली चलो।"
भारत के वीर सपूत को कोटिश नमन !_/\_
*डा.(मानद)ममता बनर्जी "मंजरी"*✍
*गिरिडीह (झारखण्ड)*
कभी स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस झारखण्ड के टाटा स्टील यूनियन के प्रेजिडेंट के पद पर थे।बाद में उनकी सिंह गर्जना राँची की पहाड़ियों के सीने में सीधे आ टकराई थी।समय था सन 1940 में रामगढ़ में 53 वें अधिवेशन का।यह वही समय था जब नेताजी अपने ओजपूर्ण भाषण से रामगढ़ की जनता के हृदय में ओज,उमंग,
उत्साह और शौर्य का संचार किए थे।
"दिल्ली चलो"-का नारा लगाते हुए मार्च की शुरुआत उन्होनें यही से की थी और उनके साथ कदम मिलाकर चल पड़े थे उनके परम मित्र श्रीमान् फणीन्द्रनाथ आयकत डॉ. एफ. एन. चटर्जी और डॉ. एस. मुखर्जी,चेला स्वरूप मुरली मनोहर बोस,यदुगोपाल मुखर्जी सहित हजारों झारखण्ड ( तत्कालीन बिहार )की जनता।
सबके आँखों में एक ही सपना था-भारत की आजादी।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नेताजी कई बार झारखण्ड आए।
उन दिनों ब्रॉड गेज लाइन नहीं होने के कारण उनकी ट्रेन चक्रधरपुर में ही रुकती थी। नेताजी वहीं उतरते और अपने राँची के मित्र डॉ. पी.एन.चटर्जी की फिएट कार में चढ़कर वन्य संस्कृति की रुपहली तस्वीर देखते -देखते सीधे राँची के लालपुर स्थित फणीन्द्रनाथ आयकत जी के बंगले में पधारते।फणीन्द्रनाथ आयकत जी सपरिवार नेताजी का गर्मजोशी के साथ स्वागत करते और नेताजी के यात्रा की थकान पल भर में उड़नछू हो जाती। घर की महिलाएँ नेताजी के सामने पारंपरिक भोजन की थालियाँ परोसती।उसके बाद शुरू होती रामगढ़ अधिवेशन की रूपरेखा तैयार करने का सिलसिला। इस महान वार्ता में नेताजी के साथ शामिल होते उनके परम मित्र फणीन्द्रनाथ आयकत जी,डॉ. एफ. एन. चटर्जी,डॉ. एस. मुखर्जी और कई आत्मीय जन।
रामगढ़ अधिवेशन के लिए प्रचूर मात्रा में धनराशि की जरूरत थी।
कहाँ से जुटेगी धनराशि ?एक बड़ा प्रश्न चिन्ह सामने खड़ा था।
पेशे से कांट्रेक्टर फणीन्द्रनाथ जी आगे आए और इस महत काम में नेताजी का साथ देने का संकल्प लिया। हालाँकि अंग्रेजों ने उन्हें पश्चिम बंगाल से राँची बुलाकर 3.5 एकड़ परिसर वाला बड़ा बंगला में उनके ठहरने की व्यवस्था कर रायबहादुर की पदवी से नवाजा था लेकिन उन्होनें देश की आजादी के लिए नेताजी का साथ देना अपना पहला कर्त्यव्य समझा और चालीस हजार की धनराशि दान में दे दी।
रामगढ़ अधिवेशन की तैयारियाँ होने लगी।इसी बीच राँची के कचहरी रोड स्थित स्वतन्त्रता सेनानी अब्दुल बारी पार्क में नेताजी का नागरिक अभिनंदन किया गया और फिरायालाल के निकट लोहरदगा लॉज में उन्होंने कई साहित्यकारों और शिक्षाविदों के साथ बैठक की।
राँची की जनता नेताजी से मिलकर मानो निहाल हुई।
जैसे-जैसे अधिवेशन का समय करीब आ रहा था वैसे-वैसे बैठकों का सिलसिला बढ़ता गया।नेताजी अपने तथाकथित मित्रों के साथ
हजारीबाग गए और तीन दिनों तक वहाँ स्थित बी.एन. घोष लॉज में ठहरकर रामगढ़ और खूंटी के देशभक्तों से मिले।बैठके की।
रामगढ़ का अधिवेशन सफल रहा और नेताजी अपने घर वापस लौटे।
इसके बाद नेताजी पुनः झारखण्ड पधारे लेकिन इस बार उनका ठिकाना झरिया और धनबाद रहा। यहाँ रहकर उन्होनें धनबाद की जनता के हृदय में आजादी की लौ जलाई ।
कभी कॉस्मो पॉलीटन होटल में रहकर तो कभी धनबाद के स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्रसाद जी के घर पर स्वाधीनता आंदोलन की रणनीति बनाई।कॉस्मो पॉलीटन होटल के संचालक भी इनके खास करीबी रहे।
नेताजी की इच्छा थी कि दोनों उनके साथ जर्मनी जाए मगर धनबाद में आंदोलन की गति तेज करने के लिए वे धनबाद में ही रुकना वाजिब समझा और नेताजी 28 जनवरी 1941 में एक बैलगाड़ी पर सवार होकर गोमो के लिए रवाना हुए। गोमो के पुराना बाजार में स्थित अब्दुल्ला के घर में रुककर इन्होनें स्वतन्त्रता आंदोलन सम्बंधित कार्यक्रम की तैयार रूपरेखा पर विचार-विमर्श किया और एकदिन काबुलीवाला का पोशाक धारण कर गोमो स्टेशन में वे पेशावर एक्सप्रेस (आज के कालका एक्सप्रेस ) में सवार हुए उसके बाद कहां गए इसका पता आज तक नहीं चल सका। कहा जाता है कि कालका मेल से वो पहले दिल्ली उतरे. वहाँ से पेशावर होते हुए काबुल पहुंचे। वहाँ से बर्लिन और कुछ समय बाद पनडुब्बी का सफ़र तय कर जापान पहुंचे।
जहाँ भी पहुँचें होंगे नेता जी लेकिन भारतीय जनता पलक-पाँवड़े बिछाकर इनका इंतजार करती रही।इंतजार करते रहे झारखण्ड में रहनेवाले इनके तथाकथित मित्रमण्डली और लाखों चहेते।
आज भी झारखण्ड की पहाड़ियों और जंगलों में इनकी सिंह-गर्जना की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है- "दिल्ली चलो।"
भारत के वीर सपूत को कोटिश नमन !_/\_
*डा.(मानद)ममता बनर्जी "मंजरी"*✍
*गिरिडीह (झारखण्ड)*
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