उल्लाला छंद / चंद्रमणि छंद/ कर्पूर छंद - उल्लाला छंद के प्रायः दो भेद होते हैं 2 पंक्ति 4 चरणों में दोहे की तरह दूह कर लिखा जाने वाला यह छंद अपने आकर्षण के चलते सर्वत्र विख्यात है। कुछ जानकार इसे उल्लाल नाम से भी जानते हैं। इस छंद का प्रथम भेद
दोहे के विषम चरण की 13 मात्राओं के मात्रा भार और शिल्प का अनुकरण करते हुए इसी एक चरण के शिल्प को लगातार 4 चरणों में लिखने से उल्लाला छंद का प्रथम भेद निर्मित होता है जो कवियों द्वारा लेखन में अत्याधिक प्रचलित रहा है।
इसी प्रकार इसका द्वितीय भेद प्रचलन में कम रहा है तदापि इसकी उत्तम लय आकर्षण का केंद्र रही है इसका शिल्प भी दोहे के विषम चरण की 13 मात्राओं के शिल्प में 2 मात्राएं और जोड़ देने के पश्चात विषम चरण 15 मात्राओं का तथा सम चरण दोहे के विषम चरण 13 मात्राओं में दोहे के विषम चरण के शिल्प का अनुकरण करना होता है। इस प्रकार से उल्लाला के द्वितीय भेद के शिल्प में 4 चरणों का मात्रा भार 15-13 और 15-13 रहता है।
उल्लाला छंद का द्वितीय भेद जिसका मात्रा भार 15,13 और 15,13 रहता इस छंद के शिल्प में विशेष ध्यान में रखने वाली बात ये है कि इसके प्रारम्भ में चौकल अनिवार्य है परन्तु जगण वर्जित है। इस छंद की लय गाल-लगा के प्रयोग सी गुथी हुई होती है। अपनी उत्तम लय के कारण इसकी गेयता का आनंद चरम पर होता है। श्रोता भी इसकी उत्तम लय के विशेष आकर्षण के चलते आनंद प्राप्त कर झूम उठते हैं। तुकबंदी सम चरण द्वितीय और चतुर्थ चरण की मिलाई जाती है। आइये उदाहरण के माध्यम से समझते हैं ।
चौकल से प्रारम्भ
(4 मात्रा का शब्द समूह)
इसी चरण की अंतिम 5 मात्रा 212 👈 अर्थात गुरु लघु गुरु ऐसे ही लिखनी हैं
15 मात्रा में से 4 मात्रा प्रथम की और 5 मात्रा अंत की निर्धारित है कुल मात्रा 9 हो गई
अब इन 9 मात्रा के मध्य बची 6 मात्रा इनमें यदि 3+3 के जोड़े गाल+लगा अर्थात 21+12 अर्थात गुरुलघु और गुरु लघु लिखेंगे तो भाव अवश्य बिखर जाएंगे । कई बार शिल्प में वो सब कथन छूट जाता जो हम अतुकांत में कह देते हैं
ऐसे में बची हुई इन मात्राओं को भी चौकल और द्विकल के अर्थात 4+2 या 2+4 के माध्यम से सरलता से कह सकते हैं।
ये एक चरण हुआ।
सभी चरणों की अंत की 5 मात्रा पहले ही निर्धारित है 212 अर्थात गुरु लघु गुरु ( इसमें गुरु को 2 लघु के माध्यम से लिख सकते हैं जबकि लघु को लघु लिखना अनिवार्य है।
उल्लाला छन्द का एक और नाम 'चंद्रमणि' भी कहा जाता है। प्रस्तुत पदों को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक विषम चरण के प्रारम्भ में एक 'गुरु' या दो 'लघु' को ध्यान से उच्चारण करेंगे तो, इसके बाद का शाब्दिक विन्यास दोहे की तेरह मात्राओं की तरह ही रहता है। उसी अनुरूप पाठ का प्रवाह भी रहता है। इस कारण विषम चरण में पहले दो मात्राओं के बाद स्वयं एक यति सी बन जाती है जिसके बाद आगे का चरण दोहा के विषम चरण की तरह ही लय में बंधता चला जाता है।
साधारण शब्दों में शिल्प को ऐसे समझें
चौकल चौकल चौकल लगा, चौकल चौकल द्विकल लगा ..... तृतीय और चतुर्थ चरण भी क्रमश 1 और 2 की तरह ही रहेंगे।
भावपक्ष भाषाशैली सार्थक एवं स्पष्ट होनी चाहिए तथा प्रत्येक चरण सार्थक व स्वतंत्र भी हो और चारो चरण आपस में एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध निभाते हुए होने चाहिए। इस छंद में सम चरणान्त और सम तुकांत अनिवार्य है।
मुखिया अपने घर ग्राम के, होते लाखों लोग हैं।
पर बनते कुछ ही मुख्य हैं, हिय बसते संयोग हैं।।
कविता कवियों की कल्पना, कल्पित कोरे भाव हैं।
सागर अम्बर में नित उड़ें, बादल में भी नाव हैं।।
जननी माता तो जन्म दे, पाले धरणी माँ सदा।
दोनों में हो आस्था जहाँ, ईश्वर वर दे सर्वदा।।
जननी माता सबसे बड़ी, धरणी सा व्यवहार है।
दोनों माता को कर नमन, इनसे ही संसार है।।
काँसा भिक्षा ले जब चला, चमके काँसा रूप है।
काँसा बीहड़ में ही खिला, सहकर जलती धूप है।।
गहरी सी अपनी पीर है, कहते अपने घाव ये।
अपनो से ही आहत हुए, अपनो के ही दाव ये।।
भाषा उत्तम है मौन की, लाखों हल रखती सदा।
सम्भव हो तो सब बोलिये, ये सुर गूँजे सर्वदा।।
यमुना के तट पर चातकी, देखे शशि की ओर है।
लहरें कोयल सी गा रही, रागों जैसा शोर है।।
पनघट उजड़े से दिख रहे, व्याकुल पक्षी शोर से।
क्रंदन पूछे फिर मौन की, प्यासी सी इस भोर से।।
मधुबन की हरियाली महक, जो देती फल फूल है।
चलती है फिर आरी सदा, ये मानव की भूल है।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
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बाबू लाल शर्मा,बौहरा,विज्ञ
माता शुभदा हे शारदे, दे मति लिख दूँ छंद पद।
पढ़ सामाजिक सद्भाव हो, हर जन मन के द्वंद मद।।
प्रभु में आस्था घर नींव मित, गहरी रखिए सीख मन।
शिक्षा पोषणमय स्वच्छता, उत्तम जीवन लीख जन।।
हिन्दी भाषा को सीखिये, भारत का अभिमान हो।
मानव मानस जन एकता, ऐसा जन अभियान हो।।
नित मंगल ग्रह पर खोजते, जन जीवन की आस हो।
जीवन में मंगल जब रहे, जल धरती शशि भास हो।।
तन वस्त्रों की बहि गन्दगी, जल साबुन से दूर कर।
मानस आत्मा निर्मल रहे, सत्संगति भरपूर कर।।
सूरज सम मुखिया हो सदा, दल हो या सरकार घर।
जन मत को दे अवसर भले, पोषण हित आधार पर।।
गुड़िया से खेले जब सुता, तब नित गुड़िया पर्व सम।
जिस घर जन्मे शिशु बालिका, कर ले उन पर गर्व हम।।
रचना देखो इस देह की, तरु जग घर ब्रह्माण्ड भू।
रग रग तन में विज्ञान है, कण कण से मृद भाण्ड भू।।
जननी हर शिशु को जन्म दे, पालन करती मात नित।
विधना जैसा होता पिता, नर मत कर आघात चित।।
नव रचना कर सविता बने, दिनकर बन दिन मान जन।
मानव मानस तन तेज भर, दीपक सम दिवसान बन।।
बाबू लाल शर्मा,बौहरा,विज्ञ
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नीतू ठाकुर विदुषी
धारा यमुना की ये सदा, लेती कान्हा नाम है।
पावन लहरें गाती रहें, बनते तट पर धाम है।।
रोचक बातों के ही लिए ,देते सच को मार सब।
बातें झूठी बिकती रही, खटकी है ये बात कब।।
अंबर धरती से ये कहे, इस रिश्ते में आस है।
मेघों का मैं राजा बना, तेरी भी ये प्यास है।।
रेखा हाथों की जो पढ़े, कहते हैं विद्वान सब।
मंथन कर्मों का जब करें, निकले उसमें पुण्य तब।।
तीरथ बनते हैं बस वहीं, बसते जिस स्थल ईश हैं।
मिट्टी भी चंदन सी बने, झुकते मानव शीश हैं।।
मुखिया सारे अब हो गए, घरका बंटाधार कर।
अंतिम क्षण साधू से बने, जीवन चौसर हार कर।।
गुड़िया गुड्डे के खेल में, आधा जीवन खो गया।
कठपुतली बन नाचे सभी, अंतिम क्षण भी रो गया।।
रचना सारे हैं ईश की, सबके अपने ध्यास है।
जीवन की गाड़ी है खड़ी, खींचे जिसको श्वास है।।
जननी नित अपने नेह से, गढ़ती है संसार को।
ममता की छाया दे घनी, सिखलाती व्यवहार को।
सविता की भविता कहे, उज्वल अग्रिम काल हैं।
खुशियों की नव वर्षा भरे, आने वाले साल हैं।।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
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अनिता सुधीर आख्या
अंजनि सुत मारुति वीर हैं, संकट मोचक आप हैं।
भक्तों के संकट दूर कर,हरते जग के ताप हैं।।
बर्तन जब कांसा धातु के,रखते घर में लोग थे।
कठिनाई में धन संपदा, बनते उत्तम योग थे।।
पनघट पर घट लेकर खड़ी,मृगतृष्णा की प्यास में।
जीवन घट भर दो श्याम अब,संझा बेला पास में।।
माता के आँचल में रहे, संतति का उत्कर्ष है।
बूढ़ी ममता की झुर्रियां,जीवन का संघर्ष है।।
उर मधुबन वृंदावन हुआ, धड़कन ढूँढ़े श्याम को।
प्रभु सिमरन करती रात दिन,पावन कर दो धाम को।।
दिनकर तनया के तीर पर,मोहन लीला कर रहे।
उस पावन यमुना नीर से,उर की गागर भर रहे।।
जन जन करते आलोचना,रोचक संगत कब कहें।
ज्ञानी बनते सबसे बड़े,दूजे की वो कब सहें।।
समझें सतरंगी अर्थ को,कितने सुंदर तथ्य हैं।
धरती अंबर जल सूर्य के,रहते अनगिन कथ्य हैं।।
रेखा जब खींची थी बड़ी, दूजे की फिर न्यून की।
झगड़े झंझट में क्यों पड़े,हो रोटी दो जून की।।
गंगा हो या गोदावरी,तीरथ मन के धाम हो।
विपदा से हाहाकार है,घर में पूजन राम हो।।
अनिता सुधीर आख्या
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इन्द्राणी साहू"साँची"
कान्हा करिए करुणा कृपा , चाकर मुझको मानिए ।
विनती विह्वल मन से करूँ , पातक पापी जानिए ।।
गाती गुनगुन गागर लिए , भरती निर्मल नीर है ।
पानी प्यासे पथिकों पिला , हरती सबके पीर है ।।
जननी जगती जग जाह्नवी , जल जन जीवन श्रेष्ठ है ।
गुरुतर गाथा गरिमा लिए , वर्णों में यह ज्येष्ठ है ।।
प्रहसित पुलकित शुभ पुष्प-सम , बचपन अति अनमोल है ।
कर ले वश में संसार को , मुख में मधुरिम बोल है ।।
पाषाणों को भी चीरकर , झरना नित अविरल बहे ।
चलना ही जीवन रीति है , यह शुभ संदेशा कहे ।।
वाणी में हो माधुर्यता , जीते जो संसार को ।
वक्ता श्रोता आह्लाद हो , समझें जीवन सार को ।।
पानी पय जल जीवन उदक , कितना निर्मल नाम है ।
संजीवन सम पावन सुधा , जीवन देना काम है ।।
माया नटिनी नर्तन करे , अज्ञानी जन रीझते ।
फँसकर फिर मोहक जाल में , पीड़ा पाकर खीझते ।।
ज्वाला जैसी जलती रही , अंतर्मन की भावना ।
दुष्टों की कलुषित सोच का , नारी करती सामना ।।
राधा मोहन की छवि निरख , पनपे पावन प्रीति मन ।
सुंदर सुरभित मन भाव ले , अपनाता शुचि रीति मन ।।
इन्द्राणी साहू"साँची"
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अनिता मंदिलवार सपना
जीवन की परिभाषा यही, साथी बन कर संग हैं ।
बोली है हिय में गूँजती, जीवन के ही अंग है।।
बहती सब नदियाँ ही रहे, कितने जल के काज हैं।
सूखी धरती पर तो कहाँ, संभव जीवन आज है।।
पैरों में ये पायल बजे, वेणी शोभा केश में।
भींगे तन मन है शीत से, गोरी पीले वेश में।।
कंजल आँसू से घिर गई, लहरे सावन केश है।
गुंथित वेणी है घूमती, देखो पावन वेश है ।।
काजल ये नैनों में बसी, बिंदी सजती माथ है।
गजरा भी बालों में सजे, प्रीतम का जब साथ है।।
अनिता मंदिलवार "सपना"
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कृष्णमोहन निगम सीतापुर
मुखिया हो चाहे गाँव का, कुनबे का या देश का।
पालन करना ही चाहिए, तुलसी के संदेश का।।
गुड़िया गुड़ियों से खेलती, आँगन भरती रंग थी।
निज पिय घर जाने को खड़ी, कल तक सखियों संग थी।।
सूरज शशि बहु उड़ुगण अवनि, कानन गिरि सरि मेघ नभ।
खग मृग मोहक रचना सुभग, निशि वासर शुभ साँझ प्रभ।।
आदर निज जननी सा करे, पर तिय का जो भी सुजन।
निश्चय सब विधि कल्याण हो,.आये सुख उसके भवन।।
चेतन जड़ सब सविता बिना,रह ना सकें अस्तित्व में ।
कितनी अनुकम्पा है भरी, प्रभु के इसी कृतित्व में।।
कृष्णमोहन निगम सीतापुर
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कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
मारुति नंदन हे नाथ सुन, विनती मेरी आज तो।
जगती से दुर्गत तुम हरो, सारो सारे काज तो।
काँसा अग्रज छाया चले,काँसा रोता रिक्त भी।
काँसा छुपता अब फिर रहा, काँसा करता तिक्त भी।
(1काँसा=कनिष्ठ 2,भिखारी का पात्र 3,काँसा धातु ।)
पनघट पर घट घूमा बहुत, जल *भर* डूबा ताल सौ।
पय ठंडा ही देता रहा, नमता चढ़ता भाल सौ।।
आँचल लहरा जब साँझ का, सिन्दूरी हो नभ खिला।
सूरज डूबा जा नींद में, यामा का पल्ला मिला।।
मधुबन महकी मधु मालती, गुंजन गाते गान *है* ।
गमकी गेंदा गुलदाउदी, तरुवर छेड़े तान *है* ।।
घर के मुखिया रखते सदा, संयम का आचार है।
संकट की जब आती घड़ी,धीरज रखते धार है।।
अवसर बीता बचपन गया, गुड़िया से था खेलना।
भूला फूलों की क्यारियाँ, अब कांटों को झेलना।
मोहक नूतन रचना रचे, गुरुवर बांटे ज्ञान भी।
लेखन नवरस गागर भरा, उत्तमता की खान भी।।
जननी से ऊंचा पद नही, देखा घूमा सब जगत।
माँ के सम्मुख हरि राम भी, करते है मस्तिष्क नत।।
सविता ऊर्जा देता सदा, सविता औषध खान भी।
सविता ही गिरिजा नाथ है, धाता देते मान भी।
१सविता=सूरज,२ मदार, ३शिव
धाता = विष्णु
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
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इन्दु साहू, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)
घर के मुखिया मेरे पिता, रखते सबका ध्यान है।
सबको देते शिक्षा सदा, भरते हममें ज्ञान है।।
प्यारी गुड़िया रानी सदा, रहती मेरे संग है।
सारी बातें मेरी सुनें, जीवन का ये अंग है।।
करती माँ से मैं प्रार्थना, हर रचना में सार दो।
नित नूतन ही सीखूँ सदा, शब्दों का भंडार दो।।।
जननी जैसी कोई नहीं, ममता का आधार है।
माता के चरणों में सदा, नतमस्तक संसार है।।
सविता सी बनने की सदा, मन में रखना चाह तुम।
दृढ़ संकल्पों से ही यहाँ, पा जाओगे राह तुम।।
-इन्दु साहू,
रायगढ़ (छत्तीसगढ़)
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राधा तिवारी "राधेगोपाल"
हरती जो दुख सबके सदा, वह तो शुभदा मात हैं।
जो भी यूंँ पूजा कर रहे, खिलता उनका गात हैं।।
गहरी तो है सागर नदी, गहरा ही है प्यार अब।
सच्चाई से जो बोलता, है उसका संसार कब।।
भाषा तो सबकी ही हुई, जीने का अरमान है।
लेकिन भाषा तो हिंद की, हम सबका अभिमान है।।
मंगल से तो मंगल हुआ, सुनलो मेरी बात को।
दर्शन से अब हनुमान के,मिलता सुख दिन रात को।।
साबुन जैसे ही मीत को ,रखना अपने पास ही।
धोता है जो मन को सदा, बन कर रहता खास ही।।
राधा तिवारी "राधेगोपाल"
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पुष्पा विकास गुप्ता प्रांजलि कटनी मध्यप्रदेश
पकते जब मिलकर अन्न दो, पड़ता खिचड़ी नाम है।
हल्का भोजन जब चाहिए, आती यह तो काम है।।
मारुति नंदन विनती सुनो, हर लो जग की पीर सब।
संकट मोचन तव नाम है, कहते हनुमत वीर सब।।
काँसा वह उत्तम धातु है, पूजन भोजन योग्य है।
करते इसका उपयोग जो, देती यह आरोग्य है।।
आँचल को लहराती हुई, शीतल पुरवाई चली।
उपवन को देती ताजगी, सुरभित है हर कली।।
हर उपवन मधुवन हो गया, आया जो मधुमास है।
हैं मोहित, मन, मधुकर, मुकुल, अंतर अति उल्लास है।।
पुष्पा विकास गुप्ता प्रांजलि कटनी मध्यप्रदेश
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अजय पटनायक
मारुति नंदन हनुमान प्रभु,विनती सुनलो नाथ जी।
वन्दन करता मैं सदा,रहना मेरे साथ जी।।
काँसा पीतल बर्तन हटे,पॉलीथिन का राज है।
दूषित खाना भगवन चढ़े,कलयुग आया आज है।।
पनघट पानी भरते सभी,करते चुगली रोज है।
नारी बातूनी है सुनो,क्या- क्या करती खोज है।।
उड़ता आँचल को देख शिशु,घूमे चारो ओर है।
करता मस्ती अटखेलियाँ,किलकारी का शोर है।।
मधुबन में झूमे मोरनी,भँवरा गाते गीत है।
फैले सौरभ मकरन्द है,लगते सबको मीत है।।
शुभदा होता जग में वही,संतति जिसके साथ है।
खुशियाँ चूमे उसके चरण,सारी दुनियाँ हाथ मे।।
गहरी तेरी दोस्ती सही,सबसे सुंदर यार है।
तुझसे ही मेरी दुनिया,मेरा तू संसार है।।
अपनी भाषा ही बोलिये,समझो उसके मोल को।
अंतर मन को लगते भले,बोलो मीठे बोल को।।
मंगलमय हो शुभ कामना,आया शुभ दिन आज है।
जीवन है खुशियों से भरा,सारे जग में राज है।।
धोकर साबुन से हाथ को,छूना भोजन थाल को।
कोरोना खतरा है बना,समझो इसके जाल को।।
अजय पटनायक
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चमेली कुर्रे 'सुवासिता' जगदलपुर बस्तर (छत्तीसगढ़)
निर्मल मन में ही सदा, ईश्वर करते वास है।
खुशियाँ जीवन में मिले, बढ़ जाता विश्वास है।।
करुणा लज्जा ही बनी, नारी की पहचान है।
दुष्टों के मन का भय यही, देते वे सम्मान है।।
मत उड़ना मनु आकाश में, पैसे के पर से कभी।
पर को पल में पल काट दे, गिरता जन नभ से तभी।।
भ्रम की बीमारी हो गयी, घर-घर जन बीमार है।
निज असि से नित मन चीरकर, ढूँढें क्यों उपचार है।।
सच्चाई की हर राह पर, बेटी चलना रोज तू।
जीवन नैया डोले नहीं, शिक्षा से गुण खोज तू।।
चमेली कुर्रे 'सुवासिता' जगदलपुर बस्तर (छत्तीसगढ़)
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सरोज दुबे 'विधा' रायपुर छत्तीसगढ़
संकट हरना सारी प्रभो, रखना मेरी लाज तुम।
वंदन करती कर जोड़ कर, पूरा करना काज तुम।।
शुभदा देवी माँ शारदा, विद्या का भंडार दो।
सद गुण सन्मति हिय में भरो, ऐसा माँ आचार दो।।
कटु बोली गहरी चोट दे, हिय को दे फिर चीर वो।
सीने से फिर सिलता नहीं, देती है बस पीर वो।।
अपनी भाषा हिंदी सरल, लगती है आसान ये।
करते हैं इसका मान हम, भारत की है शान ये।।
कड़वी बोली मत बोलिए, मन होता आघात फिर।
मीठी बोली ही बोलिए, चाहे कम हो बात फिर।।
सरोज दुबे 'विधा' रायपुर छत्तीसगढ़
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शरद अग्रवाल 'नव्या'
खुशियां मिलती आंचल तले, ईश्वर का उपहार माँ।
खुशियों की वह खान है, ममता का भंडार माँ।।
वृन्दावन लीला श्याम की, राधा की पायल बजे।
मुरली मधुबन में बज रही, गोपी यमुना तट सजे।।
पनघट तो प्यासा ही रहे, पनिहारी मन पीर है।
देखे प्यासे उसके नयन, गागर नैना नीर है।।
बड़के का सिर पर हाथ हो, कांसा फूलों सा खिले।
भाईचारा ममता बढे, जीवन समरसता मिले।।
मारुति नंदन हनुमान जी, बलशाली विद्वान हैं।
संकट काटें पीड़ा मिटे, देवों में बलवान हैं।।
--- शरद अग्रवाल 'नव्या'
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डॉ ओमकार साहू "मृदुल"
यमुना तक्षक दूषित करे, जनमानस विष व्याप्त है।
नटवर नाथे अहि कालिया, जो श्रापित अभिशाप्त है।।
रामायण की रोचक कथा, मन वांछित सुखधाम है।
माता भ्राता, भार्या सखा, मर्यादित श्रीराम है।।
नभचर दल अंबर में उड़े, पंखों को आकार दे।
आशान्वित है नित खोज में, स्वप्नों को विस्तार दे।।
लक्ष्मणजी रेखा खींचते, निकले भ्राता खोज में।
रावण बनकर बहुरूपिया, भिक्षा माँगे भोज में।।
माता पितृ चरणों में लगे, चारों तीरथ धाम है।
उत्त्तम सेवा पग पूजना, ज्यों दशरथ के राम है।।
डॉ ओमकार साहू "मृदुल"
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अर्चना पाठक'निरंतर'
शुभदा विद्या का दान दो, भर दो झोली ज्ञान से।
मन में खुशियाँ बढ़ती रहें, नित दिन इसका भान दो।।
गहरी लग जाये चोट तो, तन भर लेता है इसे ।
जब मन की नैया डूबती , फिर कैसे खेता इसे।।
भाषा कहती है भाव को, कह लो मन की बात ये।
संप्रेषण जब सच्चा रहे ,पहुँचे सबकी गात ये ।।
मंगल की करती कामना ,शेरों वाली आ रही ।
करतल ध्वनि से स्वागत करो, माता वर बरसा रही।।
साबुन अति निर्मल तन करे, करता रोगों का नाश ये।
मन भी हर्षित हो रहा, सस्ता होवे काश ये।।
अर्चना पाठक'निरंतर'
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डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव 'मंजुल'
कोरोना का काल यह,संकट है विकराल।
मानव ने ही रच दिया,मानव हित यह जाल।।
जीवन राहों में भरे,संकट कंटक संग।
संघर्षों से जीतिये,चाहे डसें भुजंग।।
संकट से हो सामना,शक्ति बढ़े अपार।
सोया साहस जागता, करिये स्वयं विचार।।
माता जब भी देखती,संकट में संतान।
बनकर ममता शेरनी ,करती सदा निदान।।
पितुश्री घर की छाँव हैंं,सहते संकट रोज।
अंधड़ ओले झेलते,मुख पर रहता ओज ।।
डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव 'मंजुल'
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परमजीत सिंह कोविद ,कहलूरी
घर का मुखिया कड़वा सही, रखता सबको जोड़ कर।
मुखिया बिन परिवारिक कलह, रख देती झंजोड़ कर।।
नन्हीं गुड़िया जिस घर वहां, मां देवी का वास हो।
बिन मांगे ही सबकुछ मिले, सुख सुविधा की आस हो।।
हर रचना ईश्वर ने रची, सबकी निज पहचान है।
अपना करते सब काम वो, दुनिया की बन शान है।।
जननी की जय गाओ सदा, दुख सहती संतान का।
पूजा नित वंदन करो, फलदायक सोपान का।।
हे सविता तेरी लालिमां, सारी दुनियां लोर में।
नव आशाएं भी जग रही, पंछी क्रंदन भोर में।।
यमुना तट बजती बांसुरी, लहरें भी क्रंदन करें।
कान्हा के नन्हे पांव को, सब वासी वंदन करें।।
रोचक मनभावन गीत से, गूंजे वृंदावन गली।
भक्तों के कटते कष्ट सब, भारी हर विपदा टली।।
अंबर में तारे घूमते, नूतन आशा को जगा।
सूरज बनता फिर रत्न है, तम अंधेरे को भगा।।
रेखा मेरी अर्धांगिनी, रेखा सीमा बांधती।
रेखा कागज पर खींचते, हथ मस्तक को लांघती।।
तीरथ यात्रा पावन बने, शुभ कर्मों का योग हो।
कर पूरे सेवा भाव से, सुख सुविधा का भोग हो।
परमजीत सिंह कोविद, कहलूरी
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बहुत सुंदर सरल शिल्प विधान नवांकुरों के लिए विशेष लाभप्रद रहेगा । उत्तमोत्तम उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं सभी कवियों द्वारा सभी के प्रशंसनीय प्रयास रहे हैं अनंत बधाई एवं शुभकामनाएं ......
ReplyDeleteउत्कृष्ट संकलन
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर । सभी का उत्साहवर्धन होगा और सभी को प्रेरणा भी मिलेगी । धन्यवाद सह बधाई सभी रचनाकारों को । नमन गुरूदेव जी ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा विचार। मुझे स्थान मिला इसके लिए आदरणीय गुरु देव जी का हृदय तल से आभार व्यक्त करता हूं।
ReplyDeleteनमन
वाह बहुत सुंदर, सहजता से समझने योग्य, सभी की रचनाएं उत्तम।नमन सबकी लेखनी को।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी 🙏