शीर्षक :- मानवीकरण अलंकार वर्कशॉप
कलम की सुगंध छंदशाला में दिसम्बर माह की वर्कशॉप का आयोजन किया गया जिसका मुख्य विषय 'मानवीयकरण अलंकार' रहा। जिसकी अध्यक्षता आदरणीया सुशीला जोशी जी मुज्जफरनगर ने की इस वर्कशॉप में मुख्यातिथि के तौर पर आदरणीया कुसुम कोठारी जी सादर आमंत्रित की गई लगभग 150 कवि परिवार की उपस्थिति में यह ऑनलाइन वर्कशॉप अपने उद्देश्य की पूर्ति करती हुई पूर्ण सफल रही इस वर्कशॉप की संचालिका आदरणीया अनिता मंदिलवार सपना जी रही जिसका समापन दोहा अंताक्षरी के साथ किया गया।
कार्यक्रम दौरान कवि परिवार में नवांकुर कवि एवं कवयित्रियों द्वारा जिज्ञासा वश अनेकों प्रश्न किये गए जिनका उत्तर आदरणीया सुशीला जोशी कार्यक्रम अध्यक्ष और मुख्यातिथि कुसुम कोठारी जी द्वारा समय समय पर दिया गया सभी लाभान्वित हुए इस वर्कशॉप से और भविष्य में भी इस प्रकार की मासिक वर्कशॉप के आयोजन के लिए संचालन परिवार द्वारा योजना बनाई गई।
प्रस्तुत है वर्कशॉप का सारांश ......
कार्यक्रम दौरान कवि परिवार में नवांकुर कवि एवं कवयित्रियों द्वारा जिज्ञासा वश अनेकों प्रश्न किये गए जिनका उत्तर आदरणीया सुशीला जोशी कार्यक्रम अध्यक्ष और मुख्यातिथि कुसुम कोठारी जी द्वारा समय समय पर दिया गया सभी लाभान्वित हुए इस वर्कशॉप से और भविष्य में भी इस प्रकार की मासिक वर्कशॉप के आयोजन के लिए संचालन परिवार द्वारा योजना बनाई गई।
प्रस्तुत है वर्कशॉप का सारांश ......
🙏🙏🙏आदरणीय संजय कौशिक "विज्ञात" सर का सुझाव था 👇
छंदशाला में एक और वर्कशाप का आयोजन होना चाहिए
जिसकी असध्यक्षता आदरणीया सुशीला जोशी जी करेंगी मुख्यातिथि आदरणीया कुसुम कोठारी जी रहेंगी
विषय रहेगा
रचना में मानवीकरण का प्रयोग कैसे करें ....
मानवीकरण से रचना कैसे बोल उठती है ....
मानवीकरण संबंधित अनेक प्रश्न और जिज्ञासा जिन पर आदरणीया सुशीला जी मंच का मार्गदर्शन करेंगी
जिसकी असध्यक्षता आदरणीया सुशीला जोशी जी करेंगी मुख्यातिथि आदरणीया कुसुम कोठारी जी रहेंगी
विषय रहेगा
रचना में मानवीकरण का प्रयोग कैसे करें ....
मानवीकरण से रचना कैसे बोल उठती है ....
मानवीकरण संबंधित अनेक प्रश्न और जिज्ञासा जिन पर आदरणीया सुशीला जी मंच का मार्गदर्शन करेंगी
दिन सर्वसम्मिति से सुनिश्चित कर लीजिए
मुख्य मंच संचालक आदरणीया अनिता मंदिलवार सपना जी से निवेदन है कि सबके हित को ध्यान में रखते हुए सबकी उपस्थिति हो सके ऐसे समय का निर्धारण कर सूचना प्रेषित करें 🙏🙏🙏
आदरणीया अनिता मंदिलवार "सपना" जी के संचालन में शुक्रवार 13.12.2019 को दोपहर 3:00 से संध्या 7 बजे तक का समय निर्धारित हुआ जिसमें मंच के सभी सदस्यों ने बहुत उत्साह से भाग लिया 🙏🙏🙏
*प्रस्तुत है वर्कशाप का सारांश* 🙏🙏🙏
सुशीला जोशी जी : *किसी भी जड़ या जंगम वस्तु का मानवीयकरण तब किया जाता है जब सम्पूर्ण सृष्टि किसी के दुख से दुखी या सुख से सूखी लगे । उस स्थिति में वेदना या प्रसन्नता उसकी अपनी न रह कर सर्वव्यापी बन जाती है ।उसकी पीड़ित चेतना में वर्षा में आँसू और कमल का खिलना उसे व्यंग दिखाई देता है । जबकि वही सब उपादान सुख में उसे गाते नाचते लगते है ।*
*मानवीयकरण लेखक की सजीव व सशक्त कल्पना है जिसके माध्यम से वह अपनी रचना को महीन ,कोमल ,संवेदनशील और सर्वव्यापी बनाता है।*
*मानवीयकरण लेखक की सजीव व सशक्त कल्पना है जिसके माध्यम से वह अपनी रचना को महीन ,कोमल ,संवेदनशील और सर्वव्यापी बनाता है।*
अनीता मंदिलवार -सपना जी : बहुत ही यथार्थ जानकारी दीदी 🙏🙏
कुसुम कोठारी जी: आज कार्यशाला में(खुले मंच पर) आदरणीय शुशील दीदी मानवीयकरण अलंकार के बारे में बताएंगे आप सभी को जो भी जिज्ञासा हो कृपया सूची बंध करें।
कुसुम कोठारी जी : अपनी जिज्ञासा रखेगें तो समाधान के साथ बहुत कुछ जानकारियां मिलेगी।
कुसुम कोठारी जी : अपनी जिज्ञासा रखेगें तो समाधान के साथ बहुत कुछ जानकारियां मिलेगी।
नीतू : अलंकार क्या है और कविता या गीत में कैसे प्रयोग करें तो रचना सज जाए 🙏
कुसुम कोठारी जी : *कवि या लेखक अपनी भाषा और भावों के सौंदर्य में वृद्धि करना चाहता है। उस सौंदर्य की वृद्धि के लिए जो साधन अपनाए गए , उन्हें ही "अलंकार" कहते हैं। उनके रचना में सौंदर्य को बढ़ाया जा सकता है , पैदा नहीं किया जा सकता।
ऐसे ही "मानवीयकरण" अलंकार का एक भेद है
ऐसे ही "मानवीयकरण" अलंकार का एक भेद है
जहाँ जड़ वस्तुओं या प्रकृति पर मानवीय चेष्टाओं का आरोप किया जाता है, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।*
तोषण जी : उदाहरणार्थ...ताकि समझने और असानी हो...
नीतू : मानवीकरण में जिसका मानवीकरण कर रहें है उसके साथ न्याय करना मुश्किल होता है...क्योंकि उसमें रचनाकार अपने भाव व विचार रखता है ....ऐसे में क्या करें?
कुसुम कोठारी जी : *रचनाकार जब भी मानवीयकरण करता है तब हो सकता है वस्तु का सार गुण धीमा पड़ जाए पर दूसरी और वो उसका सुंदर विश्लेषण देता है जो रचना के साथ उस वस्तु के सौंदर्य में वृद्धि करता है ।*
*कवि का काम सृजन करना है।प्रकृति अपनी मौलिकता बनाए रखती है। कवि कभी भी प्रकृति को नुक्सान नहीं पहुंचाता।*
*कवि का काम सृजन करना है।प्रकृति अपनी मौलिकता बनाए रखती है। कवि कभी भी प्रकृति को नुक्सान नहीं पहुंचाता।*
अनीता मंदिलवार -सपना जी : सही कहा
नीतू : पूर्ण सहमत 🙏
सुशीला जोशी जी : *मानवीयकरण में न्याय या अन्याय का तो प्रश्न ही नही उठता । मानवीयकरण कवि का सखा/सखी , प्रेमी/प्रेम का साक्षी ही बनता है ।
जैसे मैं नीर भरी दुख की गगरी
महादेवी का दुख एक जल से भरे गागर जैसा है । इसमें उन्होंने जल को पीड़ा और गागर को पीड़ित दर्शाया है ।अर्थात ऐसी गागर जिसमे पीड़ा का जल भरा रहता है । इन शब्दों से उनके दुख की तीव्रता दर्शित हो रही है । जल या गगरी के साथ न्याय या अन्याय कहाँ ??
रामायण में राम जब सीता को वन में खोजते फिर रहे है तो वे एक एक वृक्ष ,लता से पूछते फिर रहे है --
....... क्या देखी मृगनैनी ।।
निश्चित लता या वृक्ष नही बोलेगे ।लेकिन राम उन्हें सजीव साक्षी मान कर उनसे सम्वाद कर रहे है ।इसमें लता या वृक्षों के न्याय या अन्याय कहाँ ?*
....... क्या देखी मृगनैनी ।।
निश्चित लता या वृक्ष नही बोलेगे ।लेकिन राम उन्हें सजीव साक्षी मान कर उनसे सम्वाद कर रहे है ।इसमें लता या वृक्षों के न्याय या अन्याय कहाँ ?*
कुसुम कोठारी जी : जैसे हम कहते हैं फूल खिला है
ये साधारण प्रक्रिया है वहीं कहते हैं फूल मुस्कुराए या मुसकाये तो भाव मुखरित होते हैं
ये साधारण प्रक्रिया है वहीं कहते हैं फूल मुस्कुराए या मुसकाये तो भाव मुखरित होते हैं
नीतू : मेरे अंतर मन का दर्पण या मेरी परछाई हो,
कौन हो तुम जो इस दुनिया में मेरी खातिर आई हो ?
चंद्र सी आभा मुख मंडल पर,जुल्फ घटा सी छाई है,
चन्द्रबदन,मृगनयनी हो तुम तन पर चिर तरुणाई है,
चाल चपल चंचला के जैसी ,स्वर में तेरे गहराई है,
तुमने मुझको जनम दिया है,या तू मेरी जाई है ?
मेरे अंतर मन का दर्पण या मेरी परछाई हो,
कौन हो तुम जो इस दुनिया में मेरी खातिर आई हो ?
कभी हंसाती,कभी रुलाती कभी रोष दर्शाती हो,
कौन हो तुम जो मन की बातें बस मुझको बतलाती हो ?
मेरी कविता,मेरी रचना तू मेरा संसार है,
तूने मेरा चयन किया है ये तेरा उपकार है,
मेरे अंतर मन का दर्पण या मेरी परछाई हो,
कौन हो तुम जो इस दुनिया में मेरी खातिर आई हो ?
- नीतू ठाकुर
कौन हो तुम जो इस दुनिया में मेरी खातिर आई हो ?
चंद्र सी आभा मुख मंडल पर,जुल्फ घटा सी छाई है,
चन्द्रबदन,मृगनयनी हो तुम तन पर चिर तरुणाई है,
चाल चपल चंचला के जैसी ,स्वर में तेरे गहराई है,
तुमने मुझको जनम दिया है,या तू मेरी जाई है ?
मेरे अंतर मन का दर्पण या मेरी परछाई हो,
कौन हो तुम जो इस दुनिया में मेरी खातिर आई हो ?
कभी हंसाती,कभी रुलाती कभी रोष दर्शाती हो,
कौन हो तुम जो मन की बातें बस मुझको बतलाती हो ?
मेरी कविता,मेरी रचना तू मेरा संसार है,
तूने मेरा चयन किया है ये तेरा उपकार है,
मेरे अंतर मन का दर्पण या मेरी परछाई हो,
कौन हो तुम जो इस दुनिया में मेरी खातिर आई हो ?
- नीतू ठाकुर
👆इसमें मैने अपनी कविता का मानवीकरण करने की कोशिश की है ...क्या ठीक से कर पाए है 🙏
सुशीला जोशी जी : *नही मैम ,यह मानवीयकरण नही है ।इसमें आपने अपनी बेटी या अन्य चरित्र को विशेषताओं को अलंकारो के माध्यम से दर्शाया है ।*
निराला की कविता ..
अबे !सुन बे ओ गुलाब !
तूने पाया जो रंगों आब ....
...........डाली पे इठला रहा
कैपिटलिस्ट ।
*पढ़े तो आपको वास्तव में अनुभव होगा कि सम्पन्न लोग और गुलाब में कितनी समानता है ।।
यह व्यंग में लिखी गयी कविता है जो गुलाब को कपेटेलिस्ट मान कर बात कर रहा है जो आज भी समसामयिक है । यद्यपि गुलाब प्राणी नही है लेकिन प्राणी मान कर लिखा गया व्यंग कितना सार्थक सिद्ध है ।*
अबे !सुन बे ओ गुलाब !
तूने पाया जो रंगों आब ....
...........डाली पे इठला रहा
कैपिटलिस्ट ।
*पढ़े तो आपको वास्तव में अनुभव होगा कि सम्पन्न लोग और गुलाब में कितनी समानता है ।।
यह व्यंग में लिखी गयी कविता है जो गुलाब को कपेटेलिस्ट मान कर बात कर रहा है जो आज भी समसामयिक है । यद्यपि गुलाब प्राणी नही है लेकिन प्राणी मान कर लिखा गया व्यंग कितना सार्थक सिद्ध है ।*
नीतू : इस रचना को लिखते वक्त बेटी का ख्याल मन में नही था बल्कि एक सवाल था ...कवि कविता को जन्म देता है या कविता कवि को। मेरी रचना का स्वरूप कैसा है 🙏 आप का उदाहरण बहुत सुंदर है और यह रचना अवश्य पढूंगी ....बहुत सुंदर जानकारी दी आपने ....आभार 🙏
कुसुम कोठारी जी : जी बहुत सुंदर जानकारी दीदी जी एक भ्राति मिटी 🙏
वंदना सोलंकी जी: बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी दी है आपने आदरणीया🙏👌👌
नीतू : आप के उत्तर से मुझे मेरा उत्तर मिल गया 😀 आभार आप का ...रचना सफल हुई क्योंकि रचनाकार के लिए हर रचना उसके बच्चे जैसी ही होती है 🙏🙏🙏
अलंकार का प्रयोग करते वक़्त किन चीजों का ध्यान रखना आवश्यक है ...जिस से रचना और निखर जाए 🙏 क्योंकि गलत प्रयोग प्रयोग गलत ही रूप देगा रचना को .….इसके लिए कल्पनाशक्ति जबरजस्त होना जरूरी है ऐसा मेरा मानना है।
कुसुम कोठारी जी : इस तरह की कुछ कविताएं मैंने लिखी है और मैं स्वयं भ्रम में हूं कि ये वास्तविक मानवीयकरण है या नहीं और आज मैं ये जिज्ञासा शुशील दीदी जी से रखने वाली थी ।
क्योंकि इस रचना में हम प्रकृति पर मानव चेष्टा नही थोप रहे बल्कि मानव पर प्रकृति को स्थापित कर रहें हैं जैसे आपने नायिका को हर जगह प्रकृति संग स्थापित किया है ..
चंद्र सी आभा
घटा ही जुल्फ आदि-आदि।
तो मेरा शुशीला दीदी से निवेदन है कि हमारी जिज्ञासा शांत करें ।🙏
क्योंकि इस रचना में हम प्रकृति पर मानव चेष्टा नही थोप रहे बल्कि मानव पर प्रकृति को स्थापित कर रहें हैं जैसे आपने नायिका को हर जगह प्रकृति संग स्थापित किया है ..
चंद्र सी आभा
घटा ही जुल्फ आदि-आदि।
तो मेरा शुशीला दीदी से निवेदन है कि हमारी जिज्ञासा शांत करें ।🙏
कुसुम कोठारी जी : तब तक मेरी मानवीयकरण पर एक रचना का अवलोकन करें
कुसुम कोठारी जी : अप्रतिम सौन्दर्य
हिम से आच्छादित
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
कुछ आज भी तन के खड़े
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।
कुसुम कोठारी।
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
कुछ आज भी तन के खड़े
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।
कुसुम कोठारी।
" गिरा अनयन नयन बिनु बानी "
अभिलाषा चौहान जी: वह संध्या सुंदरी परी सी
गिरि का गौरव गाकर निर्झर
निराला और पंत की ये पंक्तियां या पूरी रचनाएं
मानवी करण का उत्तम उदाहरण है न दीदी
अभिलाषा चौहान जी: वह संध्या सुंदरी परी सी
गिरि का गौरव गाकर निर्झर
निराला और पंत की ये पंक्तियां या पूरी रचनाएं
मानवी करण का उत्तम उदाहरण है न दीदी
कुसुम कोठरी जी : 👌जी सही ।
अभिलाषा चौहान जी : छायावादी रचनाओं में मानवीकरण का बड़ा ही सुन्दर चित्रण है। यहां पर इसका चरम सौंदर्य प्रकट हुआ है।
कुसुम कोठरी जी : छाया वादी काल में अलंकारों का अनुपम अभिनव प्रयोग हुवा है । जो अतुल्य है।
कुसुम कोठरी जी : छाया वादी काल में अलंकारों का अनुपम अभिनव प्रयोग हुवा है । जो अतुल्य है।
अभिलाषा चौहान जी : मानवीकरण प्रकृति का किया जाता है।अर्थात प्रकृति पर मानवीय चेष्टाओं का आरोप।जबकि मानव की प्रकृति के साथ तुलना पर उपमा उत्प्रेक्षा या रूपक अलंकार का प्रयोग होता है ।है ना दीदी।क्या मैं सही हूं।
आरती श्रीवास्तव जी:
मैं नीर भरी दुःख की बदली,
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा नाम कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी,मिट आज चली।
मैं नीर भरी दुःख की बदली,
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा नाम कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी,मिट आज चली।
महादेवी वर्मा🙏🏽🙏🏽
अनीता मंदिलवार -सपना जी : और सभी भी इस चर्चा में शामिल हों । लाभ ही होगा🙏🌹
डॉ. कमल वर्मा जी : आ दीदी नमस्कार। मानवी करण में जीव को मानव माना जाता है या निर्जीव या दोनों को। प्रायःनदी को अल्हड़ नवयौवना की तरह मान कर मैंने कुछ कविताएँ लिखी है।
पहाड़ को भाई या पिता की तरह रक्षक।
क्या दोनों मानवीकरण है।
कमल
पहाड़ को भाई या पिता की तरह रक्षक।
क्या दोनों मानवीकरण है।
कमल
सुशीला जोशी जी : *बिल्कुल नही ।मानवीयकरण किसी वस्तु के गुण दोष देख नही किया जाता । वह तो स्वयं कवि की मनःस्थिति के अनुसार होता है ..
बहुत गुलाबी हँसी तुम्हारी
तभी तो हमको लुभा रही हो ।।
बहुत गुलाबी हँसी तुम्हारी
तभी तो हमको लुभा रही हो ।।
इसमें हँसी को गुलाबी कहा जो कवि के मनमे उगते प्रेम को दर्शा रही है । इसमें हँसी का गुण धीमा नही पड़ा वरन गुण दुगना हो रहा है और हँसी को और अनुपम बना रहा है।
तुम्हारी खामोशी हम पे भारी
क्यो हमको ऐसे जला रही हो ।।
तुम्हारी खामोशी हम पे भारी
क्यो हमको ऐसे जला रही हो ।।
अब यहाँ खामोशी का गुण दुगना हो रहा है जिससे कवि आहत है ,आकुल है । इसमें ख़ामोशी नायक का कार्य कर रही है ।*
डॉ. कमल वर्मा जी : जिसे अंग्रेजी में personification कहतें है, वह है?
वंदना सोलंकी जी: निर्झर ल फूटफूट कर रो रहे
फूल पत्तियां भी सिसक पड़ी
मसली जा रही मासूम कलियां
उपवन की डाली बिलख रही ।।
वंदना सोलंकी जी: निर्झर ल फूटफूट कर रो रहे
फूल पत्तियां भी सिसक पड़ी
मसली जा रही मासूम कलियां
उपवन की डाली बिलख रही ।।
*वंदना सोलंकी*
आदरणीया सुशीला जी ,,क्या ये रचना मानवीकरण के मानक पर खरी उतरती है?🙏🏻🙏🏻
सादर समीक्षार्थ
सादर समीक्षार्थ
सुशीला जोशी जी : *जीव तो जीवित है उसका मानवीयकरण नही होता लेकिन बेजुबान प्राणियों का मानवीयकरण सम्भव है। जैसे तोता ,मैना, चिड़िया , मृग या फिर कोई आपका पालतू प्राणी ।*
अनुराधा चौहान जी : गुलमोहर तुम क्यों नहीं हँसते
क्यों नहीं खिलते नवपुष्प लिए
इतराते थे कभी यौवन पर
शरमा उठते थे सुर्ख फूल लिए
कर श्रृंगार सुर्ख लाल फूलों से
सबके मन को लुभाते थे
खड़े आज भी तुम वैसे ही हो
बस लगते थोड़े मुरझाए हो
क्यों नहीं खिलते नवपुष्प लिए
इतराते थे कभी यौवन पर
शरमा उठते थे सुर्ख फूल लिए
कर श्रृंगार सुर्ख लाल फूलों से
सबके मन को लुभाते थे
खड़े आज भी तुम वैसे ही हो
बस लगते थोड़े मुरझाए हो
*अनुराधा चौहान*
*सादर समीक्षार्थ*
*सादर समीक्षार्थ*
वंदना सोलंकी जी: इसमें ल को न पढ़ा जाए।टंकण त्रुटि🙏🏻😀
नीतू : पूर्ण सहमत ....सुंदर जानकारी 👌मार्गदर्शन के लिए आभार 🙏
नीतू : पूर्ण सहमत ....सुंदर जानकारी 👌मार्गदर्शन के लिए आभार 🙏
सुशीला जोशी जी : *बहुत सुंदर ।गुलमोहर जो कभी आपकी खुशी का कारण था आज मुरझाया सा लग रहा है ।शायद वह आपके दुख से दुखी है ।*
अनुराधा चौहान जी : हार्दिक आभार दीदी
नीतू : बहुत ही खूबसूरती से समझाया आपने ...बहुत सही 🙏बहुत खूब 👌
अनुराधा चौहान जी : हार्दिक आभार सखी
नीतू : बहुत ही खूबसूरती से समझाया आपने ...बहुत सही 🙏बहुत खूब 👌
अनुराधा चौहान जी : हार्दिक आभार सखी
सुशीला जोशी जी : *मानवीयकरण नही छायावाद है ।आपने आज के परिवेश को अन्य माध्यम से दर्शाया है ।*
नीतू : इस बात से यह तो स्पष्ट है जिसका मानवीकरण कर रहे हैं उसका भावना से निकटतम संबंध होना जरूरी है 🙏
नीतू : हर रचनाकार अपनी कल्पना शक्ति के हिसाब से मानवीकरण करता है ...पर उत्तम मानवीकरण के क्या गुण हैं ?
नीतू : इस बात से यह तो स्पष्ट है जिसका मानवीकरण कर रहे हैं उसका भावना से निकटतम संबंध होना जरूरी है 🙏
नीतू : हर रचनाकार अपनी कल्पना शक्ति के हिसाब से मानवीकरण करता है ...पर उत्तम मानवीकरण के क्या गुण हैं ?
कुसुम कोठरी जी : तुम्हार होंठों जैसे गुलाब
में मानवीयकरण है अतिशयोक्ति भी तो इसमें गुलाब को होंठों सा बताया है तो गुलाब की महत्ता बढ़ी या घटी है या फिर और कोई भाव उभर रहा है कृपया बताएं दीदी जी।
में मानवीयकरण है अतिशयोक्ति भी तो इसमें गुलाब को होंठों सा बताया है तो गुलाब की महत्ता बढ़ी या घटी है या फिर और कोई भाव उभर रहा है कृपया बताएं दीदी जी।
अभिलाषा चौहान जी : मेघ गाते आ रहे मल्हार नभ में
विहग अवली झूमती जाती गगन में
बन गलहार मेघ का सत्कार करने
पवन मुक्त छंद स्वागत गान करते
वृक्ष भी लय ताल संग नृत्य करते
मोर दादुर कोयल पपीहा राग छेडें
मेघ मल्हार संग अपनी तान जोडें
बरस उठी चहुंओर रसधार है अब
प्रकृति भी रसरंग में डूबी हुई अब
प्रिय प्रेम की बूंदो का स्पर्श पाकर
अवनि ने कर लिए श्रृंगार सोलह
प्रिय मिलन की घड़ी समीप आई
देख प्रिय को विरहिणी है लजाई
चंचला दामिनी पल-पल बताए
मेघ मल्हार अलापते आ गए हैं
प्रियतमा पर प्रेमरस बरसा रहे हैं
मिलन का संगीत है देखो अनूठा
धरा से नवजीवन का अंकुर फूटा
हर्ष का पारावार है चहुंओर अब
ओढ ली अवनि ने धानी चुनर जब
सृष्टि भी निखरती जा रही अब
मेघ सारे कलुष को धो रहे हैं
विहग अवली झूमती जाती गगन में
बन गलहार मेघ का सत्कार करने
पवन मुक्त छंद स्वागत गान करते
वृक्ष भी लय ताल संग नृत्य करते
मोर दादुर कोयल पपीहा राग छेडें
मेघ मल्हार संग अपनी तान जोडें
बरस उठी चहुंओर रसधार है अब
प्रकृति भी रसरंग में डूबी हुई अब
प्रिय प्रेम की बूंदो का स्पर्श पाकर
अवनि ने कर लिए श्रृंगार सोलह
प्रिय मिलन की घड़ी समीप आई
देख प्रिय को विरहिणी है लजाई
चंचला दामिनी पल-पल बताए
मेघ मल्हार अलापते आ गए हैं
प्रियतमा पर प्रेमरस बरसा रहे हैं
मिलन का संगीत है देखो अनूठा
धरा से नवजीवन का अंकुर फूटा
हर्ष का पारावार है चहुंओर अब
ओढ ली अवनि ने धानी चुनर जब
सृष्टि भी निखरती जा रही अब
मेघ सारे कलुष को धो रहे हैं
दीदी इस रचना पर समीक्षा करें कृपया
अभिलाषा चौहान
सादर समीक्षार्थ 🙏🌷
अभिलाषा चौहान
सादर समीक्षार्थ 🙏🌷
डॉ कमल वर्मा जी : दीदी जी ऐसे तो कई गीत है।
जैसे__देखो वह चाँद हँसकर इशारे कर रहाहै।
क्या मानवी करण है?
कुसुम कोठरी जी : जी ये तो मानवीयकरण है
जैसे__देखो वह चाँद हँसकर इशारे कर रहाहै।
क्या मानवी करण है?
कुसुम कोठरी जी : जी ये तो मानवीयकरण है
सुशीला जोशी जी : *यह मानवीयकरण है कहाँ?? अपने होठों को गुलाब जैसा बताया है । यह तो अलंकार है । मानवीयकरण का अर्थ किसी चीज को वही बना देना जिसे आप चाहते है ।
नदी का बहना / नदी का दौड़ना
दोनो में यही अंतर है ।*
नदी का बहना / नदी का दौड़ना
दोनो में यही अंतर है ।*
डॉ कमल वर्मा जी : हाँ मै समझी थी। धन्यवाद
सुशीला जोशी जी : *मैं कब उसे मना कर रही हूँ । गीतों में आज भी मानवीयकरण और छायावाद का बोलबाला है ।*
वंदना सोलंकी जी: जी,हार्दिक आभार🙏🏻
कुसुम कोठरी जी : जी मैंने पूछा था कोई गुलाब को दिखा कर कह रहा है प्रेयसी से कि देखो ये गुलाब तुम्हारे होठों जैसे है
सुशीला जोशी जी : यह उपमा हुई न । मानवीयकरण नही ।
डॉ कमल वर्मा जी : धन्यवाद हृदय से। आदरणीय बहुत सुंदर चर्चा के लिए। आ जोशी दीदी जी को भी धन्यवाद एवं नमस्कार।
संजय कौशिक " विज्ञात" सर : मानो मनु ज्यों जनु जैसे
डॉ कमल वर्मा जी : धन्यवाद हृदय से। आदरणीय बहुत सुंदर चर्चा के लिए। आ जोशी दीदी जी को भी धन्यवाद एवं नमस्कार।
संजय कौशिक " विज्ञात" सर : मानो मनु ज्यों जनु जैसे
उपमा
सुशीला जोशी जी : पहले आप अपनी इस रचना को किसी विधा के अंतर्गत रखिये । फिर बात करेंगे समीक्षा की ।
सुशीला जोशी जी : जी यह भी उपमा अलंकार है
संजय कौशिक "विज्ञात " सर : जी 🙏🙏🙏
सुशीला जोशी जी : पहले आप अपनी इस रचना को किसी विधा के अंतर्गत रखिये । फिर बात करेंगे समीक्षा की ।
सुशीला जोशी जी : जी यह भी उपमा अलंकार है
संजय कौशिक "विज्ञात " सर : जी 🙏🙏🙏
कुसुम कोठरी जी : तुम्हारे होंठ गुलाब जैसे ..उपमा
गुलाब तुम्हारे होंठ जैसे इसमें गुलाब को होंठों सा कहना भी उपमा ही होगा क्या आदरणीय।
सुशीला जोशी जी : जी हाँ ।
कुसुम कोठरी जी : 🙏जी सादर
डॉ कमल वर्मा जी : अगर हम कहते हैं, उसमें बिजली सी चंचलता है तो उपमा हुई।
चंचल बिजली आसमान में चमक कर आगे राह दिखा रही थी। मानवीकरण है।
गुलाब तुम्हारे होंठ जैसे इसमें गुलाब को होंठों सा कहना भी उपमा ही होगा क्या आदरणीय।
सुशीला जोशी जी : जी हाँ ।
कुसुम कोठरी जी : 🙏जी सादर
डॉ कमल वर्मा जी : अगर हम कहते हैं, उसमें बिजली सी चंचलता है तो उपमा हुई।
चंचल बिजली आसमान में चमक कर आगे राह दिखा रही थी। मानवीकरण है।
सुशीला जोशी जी : *मानवीकरण कामायनी में दिखिए जिसमें मानवीय मनोवृत्तियों को चरित्र में ढाल कर पूरा ग्रन्थ रचना ।*
डॉ कमल वर्मा जी : ठीक समझी हूँ न आ दीदी जी।
सुशीला जोशी जी : *नही , स्वयं के गुणों का प्रकृति के माध्यम से गुणगान है या अलंकारिक आत्मश्लाघा है ।।*
सुशीला जोशी जी : *नही , स्वयं के गुणों का प्रकृति के माध्यम से गुणगान है या अलंकारिक आत्मश्लाघा है ।।*
श्वेता सिन्हा जी : जी प्रणाम दी मेरी एक रचना की समीक्षा कर दीजिए कृपया
लह-लह,लह लहकी धरती
उसिनी पछुआ सहमी धरती
सही गयी न नभ से पीड़ा
भर आयी बदरी की अँखियाँ
लड़ियाँ बूँदों की फिसल गयी
टप-टप टिप-टिप बरस गयी
उसिनी पछुआ सहमी धरती
सही गयी न नभ से पीड़ा
भर आयी बदरी की अँखियाँ
लड़ियाँ बूँदों की फिसल गयी
टप-टप टिप-टिप बरस गयी
अंबर की भूरी पलकों में
बदरी लहराते अलकों में
ढोल-नगाड़े सप्तक नाद
चटकीली मुस्कान सरीखी
चपला चंचल चमक गयी
बिखर के छ्न से बरस गयी
बदरी लहराते अलकों में
ढोल-नगाड़े सप्तक नाद
चटकीली मुस्कान सरीखी
चपला चंचल चमक गयी
बिखर के छ्न से बरस गयी
थिरके पात शाख पर किलके
मेघ मल्हार झूमे खिलके
पवन झकोरे उड़-उड़ लिपटे
कली पुष्प संग-संग मुस्काये
बूँदें कपोल पर ठिठक गयी
जलते तन पर फिर बरस गयी
मेघ मल्हार झूमे खिलके
पवन झकोरे उड़-उड़ लिपटे
कली पुष्प संग-संग मुस्काये
बूँदें कपोल पर ठिठक गयी
जलते तन पर फिर बरस गयी
कुसुम कोठरी जी : कोई भी अपनी जिज्ञासा रख सकता है दीदी सब की जिज्ञासा का हल करेंगे🙏
श्वेता सिन्हा जी : जी दीदी जब हम मानवीयकरण करते हैं तो जिस प्राकृतिक बिंब का प्रयोग कर रहे उसका प्रयुक्त भावों से तालमेल होना आवश्यक है न?
जैसे कि किसी पुष्प का बिंब कोमलता के भाव के लिए प्रयुक्त किया जायेगा ना..?
कुसुम कोठरी जी : जब तक आदरणीय दीदी सब की समस्या समाधान देती हैं सरल शब्दों में मानवीयकरण..
फूल हंसे कलियां मुसकाईं।
यहाँ फूलों का हँसना, कलियों का मुस्कराना मानवीय चेष्टाएँ हैं। अत: मानवीकरण अलंकार है।
मानवीयकरण अलंकार में दूसरी निर्जीव चीजों में सजीव होने की बात दर्शाई जाती है. यानी उस जी चीज में मानव होने का बोध कराया जाता है।
मानवीयकरण अलंकार में दूसरी निर्जीव चीजों में सजीव होने की बात दर्शाई जाती है. यानी उस जी चीज में मानव होने का बोध कराया जाता है।
यानि हम कह सकते हैं कि जब किसी कविता, दोहे या गद्य में प्रकृति को मनुष्य की तरह व्यवहार करते हुए दिखाया जाये, तो उसे मानवीकरण अलंकार कहते हैं। जैसे - मेघ आये बन ठन के, सज-संवर के, इस वाक्य में बादलों का मानवीकरण किया गया है. इससे गद्य व पद्य की सुन्दरता कई गुनी बढ़ जाती है।
नीतू : मतलब ओठों की तुलना गुलाब से करना उपमा है और कटे हुए वृक्ष को देखकर कटे हाथ लिखना मानवीकरण 🙏
कुसुम कोठरी जी : मेरी एक अतुकांत रचना की कृपया समीक्षा किजिए दीदी जी, इसमें कुछ मानवीयकरण है भी या सब उपमा अलंकार ही है।
अतुकान्त नव विधा
अप्रतिम सौन्दर्य
कुसुम कोठरी जी : मेरी एक अतुकांत रचना की कृपया समीक्षा किजिए दीदी जी, इसमें कुछ मानवीयकरण है भी या सब उपमा अलंकार ही है।
अतुकान्त नव विधा
अप्रतिम सौन्दर्य
हिम से आच्छादित
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
कुछ आज भी तन के खड़े
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
कुछ आज भी तन के खड़े
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।
कुसुम कोठारी।
" गिरा अनयन नयन बिनु बानी "
" गिरा अनयन नयन बिनु बानी "
सुशीला जोशी जी : *मानवीयकरण सोच समझ कर नही किया जाता । उस समय जैसे मनःस्थिति होती है उसी के अनुरूप उपादन स्वयं उपस्थित हो जाते है ।राम ने वृक्षों को जान बुझ कर साक्षी नही बनाया ।।उन्हें आभास था को सीता जिस रास्ते से गयी है उसके सभी उपदान उनके साक्षी हो सकते है ।इसलिए वह लगातार पूछते आगे बढ़ते रहे ।*
सुशीला जोशी जी : काँख में सूरज दबाएँ
आ गया लोघन कुहासा
धुन्ध की चादर लपेटे
गढ़ रहा है नई भाषा ।।
आ गया लोघन कुहासा
धुन्ध की चादर लपेटे
गढ़ रहा है नई भाषा ।।
यह मानवीयकरण है ।।
कुहासे का मानवीयकरण है ।।
कुहासे का मानवीयकरण है ।।
नीतू : बहुत बहुत आभार सुशीला दीदी जी आप के स्पस्टीकरण ने शंकाओं का समाधान कर दिया ....मानवीकरण को इतनी गहराई से हमने कभी सोचा ही नही था 🙏
नीतू : उपमा और अलंकार भी उलझे हुए से थे ...कुछ सुलझ गए
कुसुम कोठरी जी : जी सही कहा हम नवांकुर हैं, दी जैसी उर्वरक भूमि मिलेगी तो जरूर खिलेगें।
नीतू : उपमा और अलंकार भी उलझे हुए से थे ...कुछ सुलझ गए
कुसुम कोठरी जी : जी सही कहा हम नवांकुर हैं, दी जैसी उर्वरक भूमि मिलेगी तो जरूर खिलेगें।
सुशीला जोशी जी : *जी नही ।। किसी जड़ वस्तु को मानवीय संवेदना से देखना मानवीयकरण है । कभी कभी आप गुड़ियों से भी बातें करती होगी ,खिलौनों से बातें करती होगी । तो क्या वे सुन रहे है ?? नही आपके हृदय की स्थिति उन्हें आपका मित्र ,बच्चा , भाई या फिर कोई भी बना रहा है ।*
सुशीला जोशी जी : चीत्कार करे
हांडी भुनता मुर्गा
जीभ का स्वाद
नीतू : जी आदरणीया ...समझ गए
हे निर्झर क्यों हो शांत आज
लगता है मन आक्रांत आज
नवगीत कोई फिर गाओ न
मन को मेरे बहलाओ न
हांडी भुनता मुर्गा
जीभ का स्वाद
नीतू : जी आदरणीया ...समझ गए
हे निर्झर क्यों हो शांत आज
लगता है मन आक्रांत आज
नवगीत कोई फिर गाओ न
मन को मेरे बहलाओ न
इस तरह हम झरने को अपना मित्र मान कर बात करें वो भी मानवीकरण है
नीतू : *कहती है मुझसे मधुशाला*
कहती है मुझसे मधुशाला मुझसे इतना प्यार ना कर
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
इज्जत, शोहरत सुख और शांति किस्तों में लुट जाती है
मिट जाती है भाग्य की रेखा जब मुझसे टकराती है
पावन गंगा जल भी मुझमे मिलकर विष बन जाता है
जो भी पीता है ये प्याला नशा उसे पी जाता है।
मिट जाती है भाग्य की रेखा जब मुझसे टकराती है
पावन गंगा जल भी मुझमे मिलकर विष बन जाता है
जो भी पीता है ये प्याला नशा उसे पी जाता है।
कहती है मुझसे मधुशाला मुझसे इतना प्यार ना कर
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
मेरी सोहबत में ना जाने कितने घर बर्बाद हुए
छोड़ गए जो तन्हा मुझको वो सारे आबाद हुए
ऐसा दोष हूँ जीवन का जीवन को दोष बनाती हूँ
प्रीत लगाता है जो मुझसे उसका चैन चुराती हूँ।
छोड़ गए जो तन्हा मुझको वो सारे आबाद हुए
ऐसा दोष हूँ जीवन का जीवन को दोष बनाती हूँ
प्रीत लगाता है जो मुझसे उसका चैन चुराती हूँ।
कहती है मुझसे मधुशाला मुझसे इतना प्यार ना कर
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
भूले भटके जग से हारे पास मेरे जब आते हैं
मीठे जहर के छोटे प्याले उनका मन ललचाते हैं
बहक गया जो इस मस्ती में उसका जीवन नाश हुआ
समझ ना पाया वो खुद भी कैसे वो इसका दास हुआ।
मीठे जहर के छोटे प्याले उनका मन ललचाते हैं
बहक गया जो इस मस्ती में उसका जीवन नाश हुआ
समझ ना पाया वो खुद भी कैसे वो इसका दास हुआ।
कहती है मुझसे मधुशाला मुझसे इतना प्यार ना कर
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
गाढे मेहनत की ये कमाई ऐसे नहीं लुटाते हैं
लड़ते हैं हालत से डटकर वहीं नाम कर जाते हैं
बहक नहीं सकता तू ऐसे तू घर का रखवाला है
एक तरफ है जीवन तेरा एक तरफ ये प्याला है।
लड़ते हैं हालत से डटकर वहीं नाम कर जाते हैं
बहक नहीं सकता तू ऐसे तू घर का रखवाला है
एक तरफ है जीवन तेरा एक तरफ ये प्याला है।
कहती है मुझसे मधुशाला मुझसे इतना प्यार ना कर
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
मै हूँ बदनामी का प्याला तू मेरा स्वीकार ना कर।
- नीतू ठाकुर
सुशीला जोशी जी : मौन ही करता रहा
मौन से संवाद ।।
मौन से संवाद ।।
मौन गन्ध संग में।
साँझ थी चढ़ी चढ़ी
नीम भी हरा भरा
धरनी चित चुप पड़ी
बुदबुदाते ही रहे
व्यर्थ का ही वाद ।।
साँझ थी चढ़ी चढ़ी
नीम भी हरा भरा
धरनी चित चुप पड़ी
बुदबुदाते ही रहे
व्यर्थ का ही वाद ।।
देखिए मानवीयकरण की पंक्तियाँ
नीतू : जी आदरणीया
नीतू : जी आदरणीया
देख रही घूँघट पट खोले
नील गगन प्यासी धरती
नील गगन प्यासी धरती
इसमें भी आप ने सुंदर मानवीकरण किया था 🙏🙏🙏
सुशीला जोशी जी : जी ,शुद्ध मानवीकरण 🌺
रजनी रामदेव जी : देखें आदरणीया, इस दोहे में मानवीयकरण हुआ क्या???? प्रेम पपीहा
नैनों में सपने सजे, सपनों में तस्वीर।
प्रेम पपीहा आ मुझे,करने लगा अधीर।।
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
महातम मिश्र जी : आदरणीया सुशीला जी मेरे मुक्तक मानवीयकरण पर हैं क्या?, सादर
"मुक्तक"
प्रेम पपीहा आ मुझे,करने लगा अधीर।।
रजनी रामदेव
न्यू दिल्ली
महातम मिश्र जी : आदरणीया सुशीला जी मेरे मुक्तक मानवीयकरण पर हैं क्या?, सादर
"मुक्तक"
नहीं किनारे नाव है, नहीं हाथ पतवार।
सूख रहा जल का सतह, नहीं उदधि में धार।
नयन हुए निर्लज्ज जब, मन के भाव कुभाव-
स्वारथ की नव प्रीति में, नहीं हृदय में प्यार।।1
सूख रहा जल का सतह, नहीं उदधि में धार।
नयन हुए निर्लज्ज जब, मन के भाव कुभाव-
स्वारथ की नव प्रीति में, नहीं हृदय में प्यार।।1
जल प्रवाह में कट रहे, वर्षों खड़े कगार।
आर-पार नौका चली, तट पर भीड़ अपार।
कैसा खेवनहार यह, नई नवेली नाव-
डर लगता है री सखी, मम साजन उस पार।।-2
आर-पार नौका चली, तट पर भीड़ अपार।
कैसा खेवनहार यह, नई नवेली नाव-
डर लगता है री सखी, मम साजन उस पार।।-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
सुशीला जोशी जी : जी नही । आपकी अभ्यस्त शैली बोल रही है । कहीं कहीं अलंकृत भाषा का प्रयोग है ।
श्वेता सिन्हा जी : जी दी कृपया मेरी कविता की समीक्षा करें🙏
सुशीला जोशी जी : जी नही । आपकी अभ्यस्त शैली बोल रही है । कहीं कहीं अलंकृत भाषा का प्रयोग है ।
श्वेता सिन्हा जी : जी दी कृपया मेरी कविता की समीक्षा करें🙏
सुशीला जोशी जी : जी प्रणाम दी मेरी एक रचना की समीक्षा कर दीजिए कृपया
लह-लह,लह *कर* लहकी धरती *16*-- 14
उसिनी पछुआ सहमी धरती।। 16
उसिनी पछुआ सहमी धरती।। 16
सही गयी न (नभ) *व्योम* से पीड़ा 15 -- *16*
भर आयी बदरी की अँखियाँ16
*टप टप टिप टिप फूल बरजती* 16
(लड़ियाँ बूँदों की फिसल गयी)
*फिसल गई बूंदों सी पखियाँ*
टप-टप टिप-टिप बरस गयी
*दरक दरक दरकी जब धरती* ।। 16
भर आयी बदरी की अँखियाँ16
*टप टप टिप टिप फूल बरजती* 16
(लड़ियाँ बूँदों की फिसल गयी)
*फिसल गई बूंदों सी पखियाँ*
टप-टप टिप-टिप बरस गयी
*दरक दरक दरकी जब धरती* ।। 16
अंबर की भूरी पलकों में 16
*ढोल नगाड़े सप्तक नाद*
बदरी लहराते अलकों में 16
*चटकीली मुस्कराती याद* 16
(ढोल-नगाड़े सप्तक नाद)
(चटकीली मुस्कान सरीखी)
(चपला चंचल चमक गयी )
*चपला चंचल चमक बरसती* 16
(बिखर के छ्न से बरस गयी)
*ढोल नगाड़े सप्तक नाद*
बदरी लहराते अलकों में 16
*चटकीली मुस्कराती याद* 16
(ढोल-नगाड़े सप्तक नाद)
(चटकीली मुस्कान सरीखी)
(चपला चंचल चमक गयी )
*चपला चंचल चमक बरसती* 16
(बिखर के छ्न से बरस गयी)
*पवन झकोरे उड़ उड़ लिपटे* 16
थिरके पात शाख पर किलके
*पुष्प कली सँग सँग मुस्काये* 16
मेघ मल्हार झूमे खिलके 16
*ठिठक गाल मनुहार लरजती* 16
थिरके पात शाख पर किलके
*पुष्प कली सँग सँग मुस्काये* 16
मेघ मल्हार झूमे खिलके 16
*ठिठक गाल मनुहार लरजती* 16
(पवन झकोरे उड़-उड़ लिपटे)
(कली पुष्प संग-संग मुस्काये)
(बूँदें कपोल पर ठिठक गयी )
(जलते तन पर फिर बरस गयी)
(कली पुष्प संग-संग मुस्काये)
(बूँदें कपोल पर ठिठक गयी )
(जलते तन पर फिर बरस गयी)
लीजिये मैम आपका यह एक सुंदर गीत बनगया ।।
आप कल्पना ,शब्द संयोजन और शैली में सिद्धहस्त है ।स्वयं को गीत की ओर मोड़िये ।बहुत आशा है आप से । 🙏🏼🌺
सुशीला जोशी जी : पढ़िए अपना गीत श्वेता जी।।
नीतू : बधाई हो श्वेता जी 💐💐💐💐
नीतू : बधाई हो श्वेता जी 💐💐💐💐
श्वेता सिन्हा जी : ओहहो अचंभित है हम...शब्द नहीं क्या.कहे दीदी
इस सार्थक चर्चा में मानवीकरण, उपमा और अलंकार के विषय में विस्तार से जानने का मौका मिला और आदरणीया सुशीला दीदी और कुसुम कोठारी जी के अनुभव और जानकारी का लाभ सभी ने उठाया ....हम हृदयतल से उनका आभार व्यक्त करते हैं 🙏
इस शानदार चर्चा के लिए सभी बधाई के पात्र हैं 💐💐💐
सादर नमन 🙏🙏🙏
सादर नमन 🙏🙏🙏
नीतू ठाकुर
मीडिया प्रभारी
कलम की सुगंध
मीडिया प्रभारी
कलम की सुगंध
कृपया प्रतिक्रिया द्वारा अपने बहुमूल्य सुझाव अवश्य दें 🙏🙏🙏🌷
ReplyDeleteज्ञानवर्धक जानकारी
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी
Deleteआभार 🙏🙏🙏
Deleteवाह!!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय 🙏🙏🙏
Deleteकाव्य सृजन करने में एक अमिट सहभागिता आपकी मानवीकरण का प्रयोग के ऊपर बहुत बेहतरीन कार्यशाला का आयोजन काबिले तारीफ़... शुभान्नल्लाह मुबारकबाद...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया 🙏🙏🙏
Deleteज्ञानवर्धक जानकारी 👌👌👌
ReplyDeleteआभार अनुराधा जी 🙏🙏🙏
Deleteबहुत ही ज्ञानवर्धक जानकरियाँँ प्रस्तुत करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद।
ReplyDeleteआभार सुधा जी 🙏🙏🙏
Deleteज्ञानवर्धक जानकारी देने के लिये हार्दिक धन्य वाद
ReplyDeleteशुक्रिया उर्मिला दी 🙏🙏🙏
Deleteब्लॉग में स्थान देने एवं सम्मान देने के लिए आत्मिक आभार
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