Tuesday, 3 March 2020

शर्म कहाँ ..दिव्या राकेश शर्मा

शर्म कहाँ ..

उसके तन से खून रिस रहा था।कपड़े तार तार हो गए थे।वह लड़खड़ाते कदमों से उसके निकट आ पैरों पर गिर पड़ी।
"मेरी रक्षा करों।"
   "कौन हो तुम?"वह चौक कर बोला।

"आह!"बस एक कराहट निकली।
"मुझे अपना परिचय दो।"वह पुनः बोला।
"मैं...मैं..मानवता हूँ।मुझे बचाइए वरना.. वरना.. मुझे मार डालेंगे।"मार्मिकता से वह बोली।
"कौन मार देगा!इस प्रकार घायल अवस्था में कैसे?"
"यह समाज।जिससें रिसता मवाद मुझे लील रहा है।मेरे शरीर में असंख्य घाव हुए हैं।चोटिल हूँ मैं और डरती हूँ जीवित न रहूंगी।"विलाप कर वह बोली।
"कैसे हुए यह घाव?"वह आश्चर्य से बोला।
"आह्!"वह पुनः करहाइ.."जब भी किसी स्त्री, किसी अबोध कन्या पर दरिंदगी होती है चोटिल तो मैं ही होती हूँ।"
"जब भी किसी भ्रूण को इसलिए कुचल दिया जाता है क्योंकि वह स्त्री है तो रोती तो मैं हूँ।मुझे बचा लीजिए आप ,बचा लीजिए।"वह बिलखने लगी।
"परंतु मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता।"दुखी हो वह बोला।
"परंतु आप तो धर्म है आप मेरी रक्षा क्यों नहीं कर सकते?"रोष से वह बोली।
"हाँ मैं धर्म हूँ पर बंदी बना दिया गया हूँ।इस सड़े समाज में मैं बंधक हूँ।"वह लाचारगी से बोला।
तभी एक मवाद की लहर उन दोनों के निकट दिखने लगी और उस लहर में बह रही थी एक स्त्री।
समाज वहीं खड़ा अट्टहास कर रहा था।

दिव्या राकेश शर्मा।

7 comments:

  1. व्यथित हो गया मन
    चिंतनीय

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  2. बहुत ही उम्दा लेखन

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  3. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन।

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  4. मर्मस्पर्शी रचना 👏👏👏👏

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  5. बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना।

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