Sunday 18 April 2021

उल्लाला शतकवीर कार्यक्रम हुआ सम्पन्न


कलम की सुगंध उल्लाला  शतकवीर 2021 कार्यक्रम हुआ सम्पन्न


आज कलम की सुगंध छंदशाला मंच पर लगभग 50 कवियों ने शतकवीर कार्यक्रम के प्रारम्भ में अपना नाम देने के पश्चात 47 कवियों ने अपना उल्लाला शतक पूर्ण कर लिया है। गुरुवर आदरणीय संजय कौशिक विज्ञात ने मंच पर उपस्थित कवियों के नाम बधाई संदेश प्रेषित करते हुए कहा कि एक ही विधा पर सतत साधना के बिना पकड़ बन पाना सम्भव कार्य नहीं होता। यह साधना उल्लाला छंद पर शतकवीर कार्यक्रम में सम्मिलित सभी कवि एव कवयित्रियों को प्रथम दिवस से आज अंतिम क्षणों तक प्रोत्साहित करती रही है। यह साधना ऊर्जावान बनाती हुई शिल्प कथन और भाव सहित अनेक हिन्दी भाषा के प्रति सजगता लाने में पूर्णतया सफल सिद्ध हुई है। इस सिद्धि का नियमित प्रयोग भविष्य में सभी की सशक्त लेखनी से देखने को मिलता रहेगा। और भविष्य में बिना किसी आयोजन के भी यह छंद निरन्तर सभी की लेखनी से लिखा हुआ नित्य देखा जा सकेगा। ऐसा कलम की सुगंध छंदशाला परिवार को पूर्ण विश्वास है । इसी विश्वास के चलते आप सभी उल्लाला छंद शतकवीरों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। मंच संचालिका अनिता मंदिलवार सपना, सह संचालिका राधा तिवारी राधेगोपाल, मीडिया प्रभारी नीतू ठाकुर विदुषी, सरस्वती, वीणापाणि और हंसवाहिनी समीक्षक समूह के प्रमुख समीक्षक बाबूलाल शर्मा बौहरा 'विज्ञ', इंद्राणी साहू साँची और अनिता सुधीर आख्या सहित सभी सह समीक्षकों के मुख्य योगदान से यह कार्यक्रम अपने चरमोत्कर्ष पर आकर आज सम्पन्न हुआ है इतने सुंदर आयोजन की हार्दिक बधाई । कार्यक्रम में सम्मिलित कवि इस प्रकार से हैं .....

1कुसुम कोठारी प्रज्ञा 

2परमजीत सिंह कोविद 

3डॉक्टर एनके सेठी 

4गुलशन कुमार साहसी 

5नीतू ठाकुर विदुषी 

6बाबूलाल शर्मा बौहरा विज्ञ 

7उमाकांत टैगोर 

8शरद अग्रवाल नव्या 

9डॉ ओमकार साहू मृदुल 

10प्रतिभा प्रसाद कुमकुम 

11डॉक्टर सरला सिंह स्निग्धा 

12आरती श्रीवास्तव विपुला 

13 प्रवीण कुमार ठाकुर 

14 धनेश्वरी देवांगन धरा

15 गीता विश्वकर्मा नेह 

16कृष्ण मोहन निगम 

17 इंदु साहू 

18इन्द्राणी साहू सांँची 

19डॉक्टर दीक्षा चौबे 

20सुधा शर्मा 

21पुष्पा गुप्ता प्रांजली 

22श्रद्धान्जलि शुक्ला अंजन 

23डॉक्टर मीता अग्रवाल मधुर 

24भावना शिवहरे तरंगिणी 

25अनीता सुधीर आख्या 

26चमेली कुर्रे सुवासिता 

27शिशुपाल गुप्ता विद्यांश 

28राधा तिवारी "राधेगोपाल" 

29बिंदु प्रसाद रिद्धिमा 

30सुधा देवांगन शुचि 

31ममता तिवारी 

32श्रीमती कृष्णा पटेल 

33धनेश्वरी सोनी गुल 

34अर्चना पाठक निरंतर 

35हेमलता राजेंद्र शर्मा मनस्विनी 

36संतोष कुमार प्रजापति माधव 

37मधु गुप्ता महक 

38सविता सिंह हर्षिता 

39डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव मंजुल 

40अनीता मंदिलवार सपना 

41सरोज दुबे विधा 

42गीतांजलि 

43गुलशन खम्हारी प्रद्युम्न 

44केवरा यदु मीरा 

45रीना गुप्ता 

46 संगीता राजपूत श्यामा

47 पूनम दुबे 'वीणा'

48 अजय पटनायक

 उल्लाला शतकवीर कार्यक्रम में समीक्षक समूह द्वारा किस गलती से अंक काटे जा सकते हैं इस ओर सभी अपना ध्यान दें और इसे कंठस्थ करलें तथा कहीं सुरक्षित भी अवश्य करलें।


उल्लाला 15/13 मात्रा भार के साथ लेकर लिखना है


मापनी की दृष्टि से समझें 

22 22 2 212, 22 22 212

22 22 2 212, 22 22 212


*कुछ अन्य सावधानी*

1 जगण का प्रयोग चारों चरणों के प्रारम्भ, मध्य और अंत में वर्जित रहेगा

2 चौकल से प्रारम्भ करना अनिवार्य है। और लय आल्हा छंद की तरह गुँथी हुई होनी अनिवार्य है।

3 विषम जो 15 मात्रा के चरण हैं। चरण 1 और 3 में 13 वीं मात्रा लघु रखनी अनिवार्य है। संक्षेप में समझें 10 मात्रा के पश्चात (212) अनिवार्य है।

4 सम चरण 2 और 4 में 11वीं मात्रा लघु रखनी अनिवार्य है ये चरण शिल्प की दृष्टि से दोहे के विषम चरण 1,3 की तरह ही लिखे जाएंगे। संक्षेप में समझें तो 8 मात्रा के पश्चात (212) अनिवार्य है।

5 त्रिकल का प्रयोग त्रिकल के साथ अनिवार्य है और विशेष ध्यान रखें कि त्रिकल 21,12 ✅ ये ही प्रयोग कर सकते हो 2121❌ 12 12❌ 1221❌ *तो ध्यान रहे इस कार्यक्रम में लिखी जाने वाली रचनाओं में त्रिकल के साथ त्रिकल का मात्र एक ही रूप स्वीकार्य है वो है 21,12 इसके पृथक त्रिकल के पश्चात त्रिकल का कोई भी रूप मान्य नहीं रहेगा* 

👇

6 *वैसे प्रयास ये करें कि पूरी रचना में किसी भी त्रिकल से बचा जा सके अंतिम 3 मात्रा को छोड़ कर।* 👈

7 यदि 111 तीन एक मात्रा भार वाले त्रिकल का प्रयोग करना पड़े तो यह किसी भी चरण के अंत में ही करना होगा इससे पृथक कहीं भी वर्जित है। 


8 कलन के माध्यम से समझते है  

*शतकवीर कार्यक्रम में 4 अप्रैल को विशेष संशोधन ध्यान से अवश्य देखें* 👇👇👇


चौकल से प्रारम्भ 

जैसे आपने अंतिम रचना 

उड़ना (4 मात्रा के शब्द समूह का चयन किया है) 

इसी चरण की अंतिम 5 मात्रा 212 👈 ऐसे लिखनी हैं

15 मात्रा में से 4  और अंत की 5 मात्रा निर्धारित है कुल मात्रा 9 हो गई 

अब इन 9 मात्रा के मध्य बची 6 मात्रा इनमें यदि 3+3 के जोड़े गाल+लगा अर्थात 21+12 अर्थात गुरुलघु और गुरु लघु लिखेंगे तो भाव अवश्य बिखर जाएंगे । कई बार शिल्प में वो सब कथन छूट जाता जो हम अतुकांत में कह देते हैं 

ऐसे में बची हुई इन मात्राओं को भी चौकल और द्विकल के अर्थात 4+2 या 2+4 के माध्यम से सरलता से कह सकते हैं। 


ये एक चरण हुआ। 

सभी चरणों की अंत की 5 मात्रा पहले ही निर्धारित है 212 अर्थात गुरु लघु गुरु ( इसमें गुरु को 2 लघु के माध्यम से लिख सकते हैं जबकि लघु को लघु लिखना अनिवार्य है। 


उपर शिल्प प्रेषित किये जा चुके हैं। फिर भी कुछ न समझ आये तो आप बिना किसी संकोच के पूछ सकते हैं 🙏🙏🙏


संजय कौशिक 'विज्ञात'


मंच को नमन , गुरुदेव को नमन,सभी प्रबुद्ध सह रचनाकारों और पाठक वर्ग को नमन।

मंच नियम वाले उल्लाला छंद पर मेरे विचार।


 मेरे *दृष्टिकोण से* 

छंद लेखन गुरुदेव से ही सीखा है  जितना भी सीखा है , और जब गुरुदेव  किसी शिल्प पर विशेष ध्यान चाहते हैं, तब यही लगता है कि उन्होंने इस पर काफी अन्वेषण किया होगा तभी पुरे मंच पर अनुशासन के साथ उसे मानने की प्रतिबद्धता का आदेश होता हैं।

और मुझे यह सदा स्वीकृति होता है , *है* ।

 *शिल्प* :-  चौकल से शुरूआत हर चरण की। हर चरण का अंत २१२ से।

 *सावधानी* :-

जगण:- वर्जित हर हाल में पर किसी विशेष कारण वश लेना ही पड़े तो उसके आगे और पीछे एक एक द्विकल से उसे संभालना है जैसे विषय में कलम की सुगंध  में सुगंध को संवारना पड़ा।

 *त्रिकल* :-  पहले पहले के कुछ उल्लाला में मेरे सहित कई साथियों ने  २१ १२ त्रिकल  लिया है और कुछ समीक्षकों ने माना कुछ ने विरोध किया।

पर अब त्रिकल वर्जित है जिससे शुरू में कुछ परेशानी हुई थी पर अब लग रहा है ये ज्यादा सरल है मात्रा संयोजन में,गेयता में।

 *चौकल* :-पहले हमने सिर्फ पहले चरण में चौकल लिया था ,पर फिर आदरणीय गुरुदेव और विज्ञ साहब ने इसे भी कड़ाई से चारों चरणों के लिए अवश्यमभावी कर दिया,जो सहज ही लेखन में आ गया क्योंकि कई प्रकार थे द्विकल चौकल और षठकल तो बहुत सरल रहा सबके लिए।

उल्लाला एक मोहक और सरल छंद है।

उल्लाला छंद का शिल्प सहज ही सरलता से मुझे समझ आ

गया,अब कोई चूक होती है तो अपनी ही असावधानी से।

क्योंकि चौकल से शुरूआत और अंत में २१२ तो फिर बीच का संयोजन काफी सरल हो जाता है। एक बार त्रिकल वर्जित होने पर लगा शब्दों की कमी हो रही है पर हिंदी जैसी समृद्ध भाषा जिसका शब्द कोष इतना विस्तृत है कि शब्द कम हो ही नहीं सकते हाँ

शब्दों पर अपनी पहुंच बढ़ानी हर रचनाकार के लिए आवश्यक है तभी वो सधा हुआ भावपूर्ण सृजन कर सकता है।

सादर धन्यवाद।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


उल्लाला छंद पर चर्चा करने से पहले मैं  आ. गुरुवर विज्ञात सर के साथ-साथ सभी धैर्यवान समीक्षकों को नमन करती हूँ जो अपना विशेष समय दे रहे हैं । 

छंद लेखन की सबसे सरल विधि चौकल से लिखने की है । पहले त्रिकल 21-12 का मतलब 2112 मात्रा मान्य है सोचकर प्रयोग कर रही थी पर अब नहीं । अब यति पर ही 212 नियमानुसार प्रयोग कर रही हूँ । 

एक बात मुख्य रूप से समझ पायी कि उल्लाला छंद के शिल्प में मात्र चौकल का ही प्रयोग करना है । यह आ. गुरुदेव सरल लेखन को ध्यान में रखकर निर्देशित किए होंगे । जगण के साथ 1212, 1221, वाले शब्द वर्जित किए गए हैं । जबकि छंदों में मान्य है । मगर श्रम 22 22 2 212 -22 22 212 मात्राभार में भी है । 

मुझे इस बात की खुशी है कि हम एक नियम पर उल्लाला छंद रच रहे हैं । शिल्पगत सावधानी बरत रहे हैं । रचना के भाव पक्ष और कला पक्ष का सौंदर्य निखारने के लिए शतकवीर सहज स्वतंत्र हैं । 

आ. विज्ञात सर! आपका स्वर प्रभावशाली है । गायन तो बाद की बात है । वाचन उत्कृष्ट है तो बात अंतस में उतरना स्वाभाविक ही है ।

मैं उल्लाला छंद के शतकवीरों में जुड़कर गर्व की अनुभूति कर रही हूँ ।


गीता विश्वकर्मा नेह

*माँ शारदे को प्रणाम* 🙏 

*गुरुदेव एवं पावन मंच को नमन* 🙏🙏

*उल्लाला छंद शिल्प पर* *चर्चा 15/13*


उल्लाला छंद चार चरणों

का छंद है

पहला विषम चरण 15 मात्राएँ

दूसरा सम चरण  13मात्राएँ 

तीसरा विषम चरण  15मात्राएँ

चौथा सम चरण 13मात्राएँ

होनी चाहिए

22 22 2 212

22 22 212

22 22 2 212

22 22 212

इस छंद के चारो चरण की शुरुआत चौकल से होनी चाहिए

जगण वर्जित है चरणों के अंत में 212 अनिवार्य है

या 2111भी कर सकते हैं

यदि बहुत जरूरी है तो त्रिकल गाल और लगा के रूप में मान्य है अर्थात 21 12

इसके अलावा कोई त्रिकल मान्य नहीं है

अहिन्दी और देशज भाषा वर्जित है

लय को भी ध्यान रखते हुए लिखना है क्योंकि ये गेय छंद है हो सके तो गुनगुना कर लिखें लय अच्छी और सही बनेगी

सम चरणों में उत्तम तुकांत का ही प्रयोग करें

विषम चरणों  में 13वीं मात्रा लघु होनी अनिवार्य है

और सम चरण की 11वीं मात्रा लघु होनी अनिवार्य है l

इन सब बातों और नियमों को ध्यान में रखते हुए उल्लाला छंद का सृजन करेंगे तो उत्तम रचना सृजित होगीl


*सरोज दुबे 'विधा*

*रायपुर छत्तीसगढ़*

आदरणीय मंच के तत्वावधान में उल्लाला शतकवीर 2021 

के इस शानदार अवसर में हम सम्मिलित हैं ,हमारे लिए गौरव व सौभाग्य की बात है।

    परम आदरणीय गुरुदेव विज्ञात जी  के मार्गदर्शन में उल्लाला छंद विधान 15/13 के मात्रा भार में बहुत ही उत्तम विधि से सिखाया जा रहा है । जैसा कि आदरणीय ने बताया कि उल्लाला चौकल से प्रारंभ करने पर गेयता अच्छी बनती है , हमने चौकल से आरंभ कर के लिखना आरंभ किया । आदरणीय गुरुदेव विज्ञ जी द्वारा एक अच्छी जानकारी दी गयी कि चारों चरण में  चौकल से प्रारंभ करें ,हमने प्रारंभ में चारों चरण में चौकल से प्रारंभ नहीं किया परन्तु अब आदरणीय के निर्देशानुसार अब हम चारों चरण को चौकल से प्रारंभ कर रहे हैं ,जिससे हमारी रचना अत्यंत ही मनोहारी‌ बन रही है।

 उल्लाला में त्रिकल का संयोजन 2112 किया जा रहा है ,जिससे लय बाधित नहीं होती । जहाँ तक जगण(121)  की बात है , छंद में इसका प्रयोग वर्जित माना जाता है , परन्तु उल्लाला में  आवश्यकतानुसार 21 121 2 मापनी के अनुसार किया जा  सकता है ।  

   पटल के आदरणीय गुरुदेव जी व  सभी टीम के समीक्षक वृन्द बहुत श्रम साध्य व  सराहनीय कार्य कर रहे हैं। पटल के लिए अपनी सेवा में तत्पर हैं। सादर वंदन 🙏🙏🙏🙏🙏


*धनेश्वरी देवाँगन धरा*

आज उल्लाला छंद सृजन के लिए  15/ 13 शिल्प पर कुछ चर्चा हो जानी चाहिए 

जगण और त्रिकल को लेकर 

सभी साथियों से निवेदन है कि 

आप जितने साथी शतक पूरा करने के लिए वचन बद्ध हैं 

आप सभी अपने लिए एक कड़ा अनुशासन निर्मित कर चुके हैं 

तो इस अनुशासन में आपने शिल्प को किस तरह लिया है और त्रिकल कितने अनिवार्य हैं तथा जगण के विषय में मंच द्वारा हमें कुछ दिशा निर्देश मिले हैं । 

निवेदन कम से कम 150 शब्दों में अपना लेख अवश्य लिखें 

 *उल्लाला छंद का शिल्प मेरे दृष्टिकोण से ....*

 

*शिल्प* - दिए गए मात्रा भार में उल्लाला छ्न्द का शिल्प अत्युत्तम , सुगठित , कसा हुआ और सुमधुर लयात्मकता को लिए हुए है ।


*सावधानी* - प्रारंभ चौकल से करना है , यदि द्विकल से प्रारंभ करते हैं तो पुनः द्विकल लेकर चौकल कर सकते हैं । जगण का प्रयोग पूरी रचना में कहीं भी न करें । त्रिकल के प्रयोग से बचें , यदि बहुत आवश्यक हुआ तो 21 12 के रूप में त्रिकल लें जिससे लय बाधित न हो ।


*जगण* - बनाए गए अनुशासन के अनुसार पूरी रचना में जगण वर्जित है ।क्योंकि इससे लय बाधित होता है ।


*त्रिकल* - त्रिकल से प्रारंभ नहीं करना है , यदि कहीं पर त्रिकल आवश्यक हो तो पुनः त्रिकल लें वह भी 21 12 के रूप में ।यति के पूर्व ही त्रिकल का प्रयोग करना है ।


*चौकल* - रचना में लालित्य और लयात्मकता लाने के लिए प्रारंभ चौकल से ही करना है , यदि द्विकल से करते हैं तो पुनः द्विकल लेकर चौकल बना लेना है ।।


आदि की व्यवस्था सहित आपको उल्लाला छंद का शिल्प सहज और सरल कैसे लगा ??? कम से कम एक कारण अवश्य लिखें ....


*गुरुदेव जी द्वारा बनाई गई शानदार शिल्पीय व्यवस्था के कारण उल्लाला छ्न्द का शिल्प सहज और सरल लगा , क्योंकि जगण और त्रिकल जैसे लयावरोधक शब्दों से परहेज और सुंदर चौकल व्यवस्था से शिल्प शानदार हो गया ।*


      *इन्द्राणी सही"साँची"*

*उल्लाला सृजन पर मेरा दृष्टिकोण,*


मंच को नमन,

आ. गुरुदेव को नमन,

पटल पर उपस्थिति देने वाले समस्त सृजनकार ,मर्मज्ञ को नमन।

किसी भी छंद का सृजन और गेयता उसकी उत्कृष्टता को सिद्ध करने में सहायक होती हैं। ऐसा ही विधान  उल्लाला छंद का है। जब मैंने छंद लिखना शुरू किया कुछ त्रुटियांँ हुईं , पर दूसरे तीसरे दिन सृजन सार्थक नियमावली में आ गया । 


उल्लाला छंद सृजन में प्रथम और तृतीय चरण १५ मात्रा और द्वितीय और चतुर्थ चरण १३ मात्रा पर यति का विधान है।

(२२२२२२१२)

(२२२२२१२)

ध्यान रखने योग्य बात यह है कि यह विषम मात्रा वाला सम मात्रा  के शब्दों  का भाव पूर्ण योग का सुंदर मेल है जिसकी यति २१२ पर ही होगी।

प्रारंभ हम चौकल से करते हैं। विराम या यति २१२ में।

बीच के ६ मात्राओं का योग २+२+२  या २+४ या ६ मात्रिक शब्द विधान अनिवार्य है। 

त्रिकल का प्रयोग हमें एक ही बार एक जगह प्रत्येक पंक्ति में यति से पूर्व करना अनिवार्य है। अन्य जगहों पर यह आवश्यक नहीं यदि करना पड़े तो २+१+१+२ मान्य है ।✔️

१+२+१+२ सर्वथा अमान्य है।❎

यह विधान दोष की श्रेणी में आता है। लय बाधा भी बनाया है। 

हिंदी शब्दावली का वृहद शब्दकोश है। एक शब्द के अनेक अर्थ निकलने वाले समानार्थी शब्द है जो हमें द्विकल चौकल के रूप में छंद को लिखने में सहायता पहुँचाते हैं।

हमें यह ध्यान रखना आवश्यक है शब्दों का आपस में मेल भावपूर्ण अर्थपूर्ण विधान सम्मत होना चाहिए। आदरणीय गुरुदेव के मार्गदर्शन  और पटल के विशेषज्ञ रचनाकार ,समीक्षक ,संचालक के उचित, सरल नियमावली का पालन कठोरता और संयम से करते हुये आज सृजन शृंखला में जुड़कर थोड़ी सी जानकारी हो गयी है।इस छंद महासागर में सृजन की एक बूँद रूपी अपनी रचना को आप सभी की समीक्षा पर खरा उतारने का प्रयास निरंतर जारी है ।..🙏🙏

इस तरह मैंने उल्लाला छंद को समझा लिखा और स्वरबद्ध किया है।

*नोट .. *हम सभी को हिंदी की विस्तृत शब्दावली का ज्ञान होना अति आवश्यक है। छंद में बोलचाल की भाषा और अहिंदी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह भी अमान्य है।


इन सभी बातों का ध्यान रखकर हम सभी अपने शिल्प और भाव पक्ष में कसावट और मधुरता ला सकते हैं।

 

*डा. सीमा अवस्थी "मिनी"*

      *भाठापारा*

मंच को नमन, गुरुदेव को नमन और सब साथियों को नमन करते हुए मैं अपने विचार उल्लाला छंद पर यही रखना चाहती हूं की

उल्लाला छंद १५/१३शिल्प पर लेखन काफी रोचक और सहजता से सीखने योग्य है। शुरुआत में कठिनाई तो हम जैसे नौसिखिया को होती ही है , लेकिन"करत करत अभ्यास से जड़मति  होत सुजान,वाली बात चरितार्थ होती है। अभ्यास करते अभी यह विद्या सहज लगने लगा है।इस मंच पर त्रिकल अमान्य होने से चौकल पर ध्यान केंद्रित करने से समय के  बचत के साथ  उल्लाला लिखना और आसान लग रहा है।


शिल्प-चौकल से ही शुरुआत हो और अंत में जगण हो।

२) सावधानी-छंद लिखकर पुनः पुनः पढ़ने से गलतियां दिख जाती है।

३)जगण-चारो चरणों में जणण का स्थान चरणान्त ही हो।

४) त्रिकल नहीं लेने से लय अच्छे से बनते हैं।

आरती श्रीवास्तव 'विपुला'

आदरणीय गुरुदेव को प्रणाम एवं रचनाकारों को नमस्कार।

मैं पहली बार उल्लाला छंद विधा में लिख रही हूं। मेरे लिए यह बहुत ही कठिन था, लेकिन मैंने प्रयास किया। इस मंच पर जो मापनी बताई गई है। बहुत ही सरल एवं जल्दी सीखने वाली है। इसमें भ्रम वाली कोई बात नहीं रहती ,इसलिए मैं इतनी जल्दी सीख गई मुझे भी आश्चर्य है। लेकिन अभी भी त्रुटियां निकल आती हैं मुझे लगता है मैं जल्दबाजी में ध्यान नहीं दे पाती मेरी ही गलती है।

कलम की सुगंध मंच का बहुत-बहुत धन्यवाद,

हेमलता राजेंद्र शर्मा मनस्विनी

साईं खेड़ा नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश


उल्लाला छंद पर एक दृष्टिकोण:-


आदरणीय गुरुदेव संजय जी 

 इस मंच के सभी समीझक व रचनाकार मित्रों को प्रणाम ।🙏🏻

इस मंच पर  उपस्थित सभी पाठकों को नमन।


 उल्लाला छंद की विशेषता यह है कि इसमें चौकल से आरंभ करते हैं व जगण 1212 ,12 21 वाले शब्द वर्जित हैं। जो कि ध्यान रखने वाली बात है

वैसी तो किसी भी छंद का विधान एक बार समझ आ जाए तो परेशानी न के बराबर होती है ।

उल्लाला छंद में 15 तेरह का नियम जिसका मात्रा भार

 222 222 12 ,22222 12 है। 


विधान समझाने व बताने में गुरुदेव का कोई सानी नहीं है। हमने गीत व उल्लाला छंद का विधान इस मंच पर आकर ही सीखा और  अच्छा अनुभव महसूस करते हैं। जो कि एक गर्व की बात है🙏🏻🙏🏻🌹🌹

अलका जैन आनंदी मुंबई

मंच को  सादर नमन , 🙏🙏

 सभी प्रबुद्ध रचनाकारों और 

आदरणीय विज्ञात जी को सादर प्रणाम।🙏🙏

 उल्लाला छंद पर मेरे विचार।


 मेरे दृष्टि में 

उल्लाला छंद लिखने का अनुभव बहुत ही सुंदर रहा है। यद्यपि शुरू में थोड़ा मुश्किल लग रहा था लेकिन कुछ चंद लिखने के बाद और गुरुदेव की इतना अच्छे से समझाने के बाद अभी यह छंद के सृजन करने में सक्षम हो पा रही हूं।

छंद लेखन वास्तव में    छंदशाला में ही आ. संजय कौशिक विज्ञात गुरुदेव  जी से ही सीखा है। आ. सर किसी भी बात को बहुत अच्छे ढंग से समझाते हैं जो सीधे दिल और दिमाग को स्पर्श कर जाती है, वास्तव मेंहम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमें इतने  विलक्षण एवं विद्वान गुरु की शरण प्राप्त है जिनके मार्ग निर्देशन में हम थोड़ा थोड़ा सीखने का प्रयास कर रहे हैं और करते रहेंगे।  इस के लिए उनका , ३स छन्द शाला का, आदरणीय अनीता दी का , स्नेहिल सखी विदुषी जी का और जितने भी हमारे समीक्षक मंडल के   सदस्य है  ,उन सभी की  मैं भूरि- भूरि प्रशंसा करती हूं और आप सभी का हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ।


1-  चौकल से शुरूआत हर चरण की।

2.  हर चरण का अंत २१२ से।

3. जगण वर्जित  

त्रिकल- चरणांत के लिए २१२ में, मान्य है, अन्यत्र वर्जित है।

4- चौकल चारों चरणों के लिए अवश्यंभावी कर दिया, जो सहज ही लेखन में आ गया क्योंकि कई प्रकार थे - द्विकल चौकल और षटकल तो बहुत सरल रहा सबके लिए।

उल्लाला द्वन्द

क्योंकि चौकल से शुरूआत और अंत में २१२ तो फिर बीच का संयोजन काफी सरल हो जाता है।

सभी रचनाकार साथियों को शतक भी बनने के लिए मेरी भी हृदय से अनन्त  शुभकामनाएं हैं।

शरद अग्रवाल 'नव्या'

मंच को सादर नमन 🙏

सभी प्रबुद्ध रचनाकारों और 

आदरणीय गुरुदेव विज्ञात जी को सादर प्रणाम।🙏🙏

उल्लाला छंद पर मेरे विचार।


 मेरे विचार में

छंद लेखन वास्तव में  छंदशाला में ही आ. संजय कौशिक विज्ञात जी से ही सीखा है। उन्होंने बहुत ही आसान व सुंदर तरीके से छन्द रचना सिखाई है।


 १.हर चरण की चौकल से शुरूआत 

२. हर चरण का अंत २१२ से।

३.जगण का प्रयोग वर्जित  

 ४.त्रिकल चरणांत के लिए २१२ में मान्य है, अन्यत्र वर्जित है।

५.चौकल  चारों चरणों के लिए आवश्यक है जो सहज ही लेखन में आ गया ।

उल्लाला एक मोहक और सरस छंद है। इसमें रचना करने में आनन्दानुभूति होती है।


डॉ एन के सेठी


बाँदीकुई(दौसा)राज.

 मंच को नमन व गुरुदेव जी को नमन 🙏

हमे अधिक ज्ञान नहीं है लेकिन फिर भी कुछ विचार रखने का प्रयास करते हैं 🙏

उल्लाला छंद १५/१३  बहुत ही सुन्दर है ।

शिल्प-चौकल से ही आरम्भ  हो और अंत में 212  हो।

त्रिकल  21 ,12 मान्य हो


संगीता राजपूत 

सच कहूॅं तो एक नये कलम कार के लिए यह विधा सबसे सरल और याद रखने योग्य है। बात द्विकल की हो चौकल की हो  जितने छोटे शब्द हों। शब्द साधना और भी सरल हो जाती है।खास कर मेरे जैसे लोगों के लिए।

मै नमन करती हूॅं गुरूदेव विज्ञात जी को।🙏🙏🙏🙏कि उन्होंने इतना सरल और बढ़िया सरली करण किया है कि हमारे लिए उल्लाला छंद लिखना आसान हो गया है।

हालांकि दिमागी घोड़े बहुत दौड़ाने पड़ते हैं।

पर अनिता बहन आपका कहना सही है।गेयता भंग नही होती।

ये2112या 1221के त्रिकल पर एक दिन हमारी और गीता विश्वकर्मा बहन की भी चर्चा हुई थी।

कि इस तरह से त्रिकल का उपयोग कर सकते हैं।पर अंततः यह निर्णय हुआ कि त्रिकल व जगण सवर्था वर्जित है।

तो वैसे भी नित नवीन प्रयोग हो रहे हैं तो एक प्रयोग यह भी। लोगों को समझने में भी आसानी और लिखने में भी।

सो नमन हैआदरणीय गुरुदेव।🙏🙏🙏

हम तो धन्य हुए इस शतकवीर विधा से जुड़कर।कि हमने  एक नई विधा सीख ली।🙏🙏🙏

सुधा देवांगन

आदरणीय गुरुदेव जी के चरणों में कोटिशः प्रणाम🙏🙏 तथा मंच के सभी विद्वान गुणीजनों का नमन वंदन अभिनंदन🙏🙏

आप के पटल पर मैं नवांगतुक बिंदु प्रसाद रिद्धिमा उल्लाला शतक वीर कार्यक्रम की प्रतिभागी हूं।

             लगातार 12 दिनों से अपनी लेखनी के लय  और शिल्प में सुधार महसूस कर रही हूं। समीक्षक गण मेरी छोटी-छोटी गलतियों का प्यार से समाधान किया है। पहले दो-तीन दिनों के बाद जगण और त्रिकल का प्रयोग नहीं के बराबर किया है,,,,, और चौकल से ही छंद की शुरुआत की हूं ।यह सब मैंने इस पटल पर सीखा है🙏🙏

कल संस्कृति संवर्धन समिति रांची झारखंड के हिंदू नव वर्ष की गोष्ठी में मैंने उल्लाला छंदआधारित एक स्तुति प्रस्तुत की थी। आप सभी को भी सुनाने को उत्सुक हूं स्वीकृति चाहती हूं।🙏

बिंदु प्रसाद 

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मंच को नमन , 

 सभी प्रबुद्ध रचनाकारों और 

आदरणीय विज्ञात जी को सादर वंदे।🙏🙏🙏🙏🙏

मंच नियम वाले उल्लाला छंद पर मेरे विचार।


 मेरे *दृष्टिकोण से* 

छंद लेखन में वास्तविक सीखना जिसे कहा जाए वह छंदशाला में ही आ. संजय कौशिक विज्ञात जी से ही सीखा है  जब जब आ.विज्ञात जी  किसी शिल्प पर विशेष ध्यान चाहते हैं, तब यही लगता है कि उन्होंने इस पर काफी अन्वेषण किया है।

और मुझे यह सदा मान्य होता है।


 *शिल्प* :- १. चौकल से शुरूआत हर चरण की।

२. हर चरण का अंत २१२ से।

 *सावधानी* :-

जगण:- वर्जित  

 *त्रिकल* :- चरणांत के लिए २१२ में, मान्य है, अन्यत्र वर्जित है।

 *समकल या चौकल* :- चारों चरणों के लिए अवश्यंभावी कर दिया, जो सहज ही लेखन में आ गया क्योंकि कई प्रकार थे - द्विकल चौकल और षटकल तो बहुत सरल रहा सबके लिए।

उल्लाला एक मोहक और सरस छंद है।

उल्लाला छंद का शिल्प सहज ही 

क्योंकि चौकल से शुरूआत और अंत में २१२ तो फिर बीच का संयोजन काफी सरल हो जाता है।

  हिंदी जैसी समृद्ध भाषा जिसका शब्द कोष इतना विस्तृत है कि शब्द कम हो ही नहीं सकते हाँ

शब्दों पर अपनी पहुंच बढ़ानी हर रचनाकार के लिए आवश्यक है ।

छंद सृजन में एकरूपता और अनुशासन ही हम सबको शतकवीर की उपाधि तक पहुँचाएँ,

शुभकामनाएँ🙏👍🙏



सादर 🙏

बाबू लाल शर्मा बौहरा विज्ञ

सिकंदरा, दौसा, राजस्थान'

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कलम की सुगंध छंदशाला 


गुरूदेव विज्ञात जी को प्रणाम साथ ही सभी गुरूजन, मार्गदर्शक, समीक्षक और रचनाकारों को प्रणाम करती हूँ  ।


उल्लाला छंद का शिल्प मेरे दृष्टिकोण में 


यदि शिल्प की बात करें तो किसी भी छंद में शिल्प का बहुत महत्व होता है । शिल्प छंद का आधार है । सबसे पहले शिल्प सही हो । उल्लाला छंद की बात करें तो गुरुदेव विज्ञात जी ने शिल्प को सरल किया, जिससे लिखने में आसानी हो । 

शतकवीर में *उल्लाला 15/13 मात्रा भार के साथ लेकर लिखवाया जा रहा है * 

इसकी मापनी यह बताई गयी है --


22 22 2 212, 22 22 212

22 22 2 212, 22 22 212


इस शिल्प  को ध्यान में रखने पर उल्लाला छंद एक गति में चलता हुआ प्रतीत होता है। उल्लाला छंद में छंदशाला के नियमानुसार जगण  का प्रयोग वर्जित है । इसका लाभ यह हुआ कि लय बाधित नहीं हो रहा है  । लय और गेयता अच्छी बन रही है ।

त्रिकल बस हर चरण के अंत में 212 के रूप में रखने पर गेयता अच्छी बन रही है । 

हर चरण के प्रारंभ में चौकल से शुरू होने से लय बाधित नहीं होती ।

उल्लाला के इस अनुशासन का पालन कर इस छंद पर कलम निर्बाध चल पड़ी है शतक का आयोजन का लक्ष्य भी यही है कि सभी की पकड़ इस छंद  पर आसानी से बन जाए और एकसार रूप में लेखन चलता रहे । सभी की कलम इन सभी नियमों का पालन करती हुई चल पड़ी है जो शतकवीर पर जल्द ही पहुँचने वाली है । 

शतकवीर के साथ ही हम तो चाहते हैं कि लेखनी हजार उल्लाला तक पहुँचे ।

 अग्रिम शुभकामनाओं सहित आप सबकी


मंच संचालिका 

अनिता मंदिलवार "सपना" 

कलम की सुगंध छंदशाला

Saturday 17 April 2021

विज्ञात बेरी छंद शिल्प विधान


 विज्ञात बेरी छंद विधान

छंद का नाम *विज्ञात बेरी छंद* (आधार मात्रा संख्या)
मापनी
8, 10
8,10
दो पंक्ति 4 चरण तुकांत दोनों विषम चरणों अर्थात प्रथम और तृतीय में मिलाना अनिवार्य। सम चरण अर्थात दूसरा और चतुर्थ 4 तुकांत मुक्त रहेंगे अनिवार्य है।

भीमा माता, ये जग है कहता।
जो भी आता, पूजे माँ तुझको।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

इस छंद का नाम मैं मेरे गाँव के नाम को समर्पित करता हूँ जिसका नाम विज्ञात बेरी छंद रहेगा।

संजय कौशिक 'विज्ञात'



विज्ञात बेरी छंद पर छंदकरों ने अपनी सहमति जताते हुए 100 से अधिक बंध लिखकर गुरुदेव संजय कौशिक 'विज्ञात' जी को समर्पित किये। सभी शताक़वीरों का आभार व्यक्त करते हुए गुरुदेव संजय कौशिक 'विज्ञात' जी ने इसे संग्रह का रूप देने की बात कही । इस अविस्मरणीय क्षण के साक्षीदार बने 150 से अधिक कवि कवयित्री जिनकी शुभकामनाओं से कलम की सुगंध परिवार उत्सव जैसी अनुभूति कर रहा है।




Thursday 15 April 2021

उल्लाला छंद शिल्प विधान परिभाषा एवं उदाहरण


उल्लाला छंद / चंद्रमणि छंद / कर्पूर छंद / उल्लाल छंद ( मात्रा 15/13) भेद -2 
संजय कौशिक 'विज्ञात'--

उल्लाला छंद / चंद्रमणि छंद/ कर्पूर छंद - उल्लाला छंद के प्रायः दो भेद होते हैं 2 पंक्ति 4 चरणों में दोहे की तरह दूह कर लिखा जाने वाला यह छंद अपने आकर्षण के चलते सर्वत्र विख्यात है। कुछ जानकार इसे उल्लाल नाम से भी जानते हैं। इस छंद का प्रथम भेद

दोहे के विषम चरण की 13 मात्राओं के मात्रा भार और शिल्प का अनुकरण करते हुए इसी एक चरण के शिल्प को लगातार 4 चरणों में लिखने से उल्लाला छंद का प्रथम भेद निर्मित होता है जो कवियों द्वारा लेखन में अत्याधिक प्रचलित रहा है।


इसी प्रकार इसका द्वितीय भेद प्रचलन में कम रहा है तदापि इसकी उत्तम लय आकर्षण का केंद्र रही है इसका शिल्प भी दोहे के विषम चरण की 13 मात्राओं के शिल्प में 2 मात्राएं और जोड़ देने के पश्चात विषम चरण 15 मात्राओं का तथा सम चरण दोहे के विषम चरण 13 मात्राओं में दोहे के विषम चरण के शिल्प का अनुकरण करना होता है। इस प्रकार से उल्लाला के द्वितीय भेद के शिल्प में  4 चरणों का मात्रा भार  15-13 और 15-13 रहता है।


उल्लाला छंद का द्वितीय भेद जिसका मात्रा भार 15,13 और 15,13 रहता इस छंद के शिल्प में विशेष ध्यान में रखने वाली बात ये है कि इसके प्रारम्भ में चौकल अनिवार्य है परन्तु जगण वर्जित है। इस छंद की लय गाल-लगा के प्रयोग सी गुथी हुई होती है। अपनी उत्तम लय के कारण इसकी गेयता का आनंद चरम पर होता है। श्रोता भी इसकी उत्तम लय के विशेष आकर्षण के चलते आनंद प्राप्त कर झूम उठते हैं। तुकबंदी सम चरण द्वितीय और चतुर्थ चरण की मिलाई जाती है। आइये उदाहरण के माध्यम से समझते हैं । 


चौकल से प्रारम्भ 

(4 मात्रा का शब्द समूह) 

इसी चरण की अंतिम 5 मात्रा 212 👈  अर्थात गुरु लघु गुरु ऐसे ही लिखनी हैं

15 मात्रा में से 4  मात्रा प्रथम की और 5 मात्रा अंत की निर्धारित है कुल मात्रा 9 हो गई 

अब इन 9 मात्रा के मध्य बची 6 मात्रा इनमें यदि 3+3 के जोड़े गाल+लगा अर्थात 21+12 अर्थात गुरुलघु और गुरु लघु लिखेंगे तो भाव अवश्य बिखर जाएंगे । कई बार शिल्प में वो सब कथन छूट जाता जो हम अतुकांत में कह देते हैं 

ऐसे में बची हुई इन मात्राओं को भी चौकल और द्विकल के अर्थात 4+2 या 2+4 के माध्यम से सरलता से कह सकते हैं। 


ये एक चरण हुआ। 

सभी चरणों की अंत की 5 मात्रा पहले ही निर्धारित है 212 अर्थात गुरु लघु गुरु ( इसमें गुरु को 2 लघु के माध्यम से लिख सकते हैं जबकि लघु को लघु लिखना अनिवार्य है।


उल्लाला छन्द का एक और नाम 'चंद्रमणि' भी कहा जाता है। प्रस्तुत पदों को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक विषम चरण के प्रारम्भ में एक 'गुरु' या दो 'लघु' को ध्यान से उच्चारण करेंगे तो, इसके बाद का शाब्दिक विन्यास दोहे की तेरह मात्राओं की तरह ही रहता है। उसी अनुरूप पाठ का प्रवाह भी रहता है। इस कारण विषम चरण में पहले दो मात्राओं के बाद स्वयं एक यति सी बन जाती है जिसके बाद आगे का चरण दोहा के विषम चरण की तरह ही लय में बंधता चला जाता है।


साधारण शब्दों में शिल्प को ऐसे समझें 

चौकल चौकल चौकल लगा, चौकल चौकल द्विकल लगा  ..... तृतीय और चतुर्थ चरण भी क्रमश 1 और 2 की तरह ही रहेंगे।


भावपक्ष भाषाशैली सार्थक एवं स्पष्ट होनी चाहिए तथा प्रत्येक चरण सार्थक व स्वतंत्र भी हो   और चारो चरण आपस में एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध निभाते हुए होने चाहिए। इस छंद में सम चरणान्त और सम तुकांत अनिवार्य है।


मुखिया अपने घर ग्राम के, होते लाखों लोग हैं।

पर बनते कुछ ही मुख्य हैं, हिय बसते संयोग हैं।।


कविता कवियों की कल्पना, कल्पित कोरे भाव हैं।

सागर अम्बर में नित उड़ें, बादल में भी नाव हैं।।


जननी माता तो जन्म दे, पाले धरणी माँ सदा।

दोनों में हो आस्था जहाँ, ईश्वर वर दे सर्वदा।।


जननी माता सबसे बड़ी, धरणी सा व्यवहार है।

दोनों माता को कर नमन, इनसे ही संसार है।।


काँसा भिक्षा ले जब चला, चमके काँसा रूप है।

काँसा बीहड़ में ही खिला, सहकर जलती धूप है।।


गहरी सी अपनी पीर है, कहते अपने घाव ये।

अपनो से ही आहत हुए, अपनो के ही दाव ये।।


भाषा उत्तम है मौन की, लाखों हल रखती सदा।

सम्भव हो तो सब बोलिये, ये सुर गूँजे सर्वदा।।


यमुना के तट पर चातकी, देखे शशि की ओर है।

लहरें कोयल सी गा रही, रागों जैसा शोर है।।


पनघट उजड़े से दिख रहे, व्याकुल पक्षी शोर से।

क्रंदन पूछे फिर मौन की, प्यासी सी इस भोर से।।


मधुबन की हरियाली महक, जो देती फल फूल है।

चलती है फिर आरी सदा, ये मानव की भूल है।।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

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बाबू लाल शर्मा,बौहरा,विज्ञ


माता शुभदा हे शारदे, दे मति लिख दूँ छंद पद।

पढ़ सामाजिक सद्भाव हो, हर जन मन के द्वंद मद।।


प्रभु में आस्था घर नींव मित, गहरी रखिए सीख मन।

शिक्षा पोषणमय स्वच्छता, उत्तम जीवन लीख जन।।


हिन्दी भाषा को सीखिये, भारत का अभिमान हो।

मानव मानस जन एकता, ऐसा जन अभियान हो।।


नित मंगल ग्रह पर खोजते, जन जीवन की आस हो।

जीवन में मंगल जब रहे, जल धरती शशि भास हो।।


तन वस्त्रों की बहि गन्दगी, जल साबुन से दूर कर।

मानस आत्मा निर्मल रहे, सत्संगति भरपूर कर।।


सूरज सम मुखिया हो सदा, दल हो या सरकार घर।

जन मत को दे अवसर भले, पोषण हित आधार पर।।


गुड़िया से खेले जब सुता, तब नित गुड़िया पर्व सम।

जिस घर जन्मे शिशु बालिका, कर ले उन पर गर्व हम।।


रचना देखो इस देह की, तरु जग घर ब्रह्माण्ड भू।

रग रग तन में विज्ञान है, कण कण से मृद भाण्ड भू।।


जननी हर शिशु को जन्म दे, पालन करती मात नित।

विधना जैसा होता पिता, नर मत कर आघात चित।।


नव रचना कर सविता बने, दिनकर बन दिन मान जन।

मानव मानस तन तेज भर, दीपक सम दिवसान बन।।


बाबू लाल शर्मा,बौहरा,विज्ञ

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नीतू ठाकुर विदुषी


धारा यमुना की ये सदा, लेती कान्हा नाम है।

पावन लहरें गाती रहें, बनते तट पर धाम है।।


रोचक बातों के ही लिए ,देते सच को मार सब।

बातें झूठी बिकती रही, खटकी है ये बात कब।।


अंबर धरती से ये कहे, इस रिश्ते में आस है।

मेघों का मैं राजा बना, तेरी भी ये प्यास है।।


रेखा हाथों की जो पढ़े, कहते हैं विद्वान सब।

मंथन कर्मों का जब करें, निकले उसमें पुण्य तब।।


तीरथ बनते हैं बस वहीं, बसते जिस स्थल ईश हैं।

मिट्टी भी चंदन सी बने, झुकते मानव शीश हैं।।


मुखिया सारे अब हो गए, घरका बंटाधार कर।

अंतिम क्षण साधू से बने, जीवन चौसर हार कर।।


गुड़िया गुड्डे के खेल में, आधा जीवन खो गया।

कठपुतली बन नाचे सभी, अंतिम क्षण भी रो गया।।


रचना सारे हैं ईश की, सबके अपने ध्यास है।

जीवन की गाड़ी है खड़ी, खींचे जिसको श्वास है।।


जननी नित अपने नेह से, गढ़ती है संसार को।

ममता की छाया दे घनी, सिखलाती व्यवहार को।


सविता की भविता कहे, उज्वल अग्रिम काल हैं।

खुशियों की नव वर्षा भरे, आने वाले साल हैं।।


नीतू ठाकुर 'विदुषी'

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अनिता सुधीर आख्या


अंजनि सुत मारुति वीर हैं, संकट मोचक आप हैं।

भक्तों के संकट दूर कर,हरते जग के ताप हैं।।


बर्तन जब कांसा धातु के,रखते घर में लोग थे।

कठिनाई में धन संपदा, बनते उत्तम योग थे।।


पनघट पर घट लेकर खड़ी,मृगतृष्णा की प्यास में।

जीवन घट भर दो श्याम अब,संझा बेला पास में।।


माता के आँचल में रहे, संतति का उत्कर्ष है।

बूढ़ी ममता की झुर्रियां,जीवन का संघर्ष है।।

 

उर मधुबन वृंदावन हुआ, धड़कन ढूँढ़े श्याम को।

प्रभु सिमरन करती रात दिन,पावन कर दो धाम को।।


दिनकर तनया के तीर पर,मोहन लीला कर रहे।

उस पावन यमुना नीर से,उर की गागर भर रहे।।


जन जन करते आलोचना,रोचक संगत कब कहें।

ज्ञानी बनते सबसे बड़े,दूजे की वो कब सहें।।

 

समझें सतरंगी अर्थ को,कितने सुंदर तथ्य हैं।

धरती अंबर जल सूर्य के,रहते अनगिन कथ्य हैं।।


रेखा जब खींची थी बड़ी, दूजे की फिर न्यून की।

झगड़े झंझट में क्यों पड़े,हो रोटी दो जून की।।


गंगा हो या गोदावरी,तीरथ मन के धाम हो।

विपदा से हाहाकार है,घर में पूजन राम हो।।

अनिता सुधीर आख्या

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इन्द्राणी साहू"साँची"


कान्हा करिए करुणा कृपा , चाकर मुझको मानिए ।

विनती विह्वल मन से करूँ , पातक पापी जानिए ।।


गाती गुनगुन गागर लिए , भरती निर्मल नीर है ।

पानी प्यासे पथिकों पिला , हरती सबके पीर है ।।


जननी जगती जग जाह्नवी , जल जन जीवन श्रेष्ठ है ।

गुरुतर गाथा गरिमा लिए , वर्णों में यह ज्येष्ठ है ।।


प्रहसित पुलकित शुभ पुष्प-सम , बचपन अति अनमोल है ।

कर ले वश में संसार को , मुख में मधुरिम बोल है ।।


पाषाणों को भी चीरकर , झरना नित अविरल बहे ।

चलना ही जीवन रीति है , यह शुभ संदेशा कहे ।।


वाणी में हो माधुर्यता , जीते जो संसार को ।

वक्ता श्रोता आह्लाद हो , समझें जीवन सार को ।।


पानी पय जल जीवन उदक , कितना निर्मल नाम है ।

संजीवन सम पावन सुधा , जीवन देना काम है ।।


माया नटिनी नर्तन करे , अज्ञानी जन रीझते ।

फँसकर फिर मोहक जाल में , पीड़ा पाकर खीझते ।।


ज्वाला जैसी जलती रही , अंतर्मन की भावना ।

दुष्टों की कलुषित सोच का , नारी करती सामना ।।


राधा मोहन की छवि निरख , पनपे पावन प्रीति मन ।

सुंदर सुरभित मन भाव ले , अपनाता शुचि रीति मन ।।


इन्द्राणी साहू"साँची"

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अनिता मंदिलवार सपना 


जीवन की परिभाषा यही, साथी बन कर संग हैं ।

बोली है हिय में गूँजती, जीवन के ही अंग है।।


बहती सब नदियाँ ही रहे, कितने जल के काज हैं।

सूखी धरती पर तो कहाँ, संभव जीवन आज है।।


पैरों में ये पायल बजे, वेणी शोभा केश में।

भींगे तन मन है शीत से, गोरी पीले वेश में।।


कंजल आँसू से घिर गई, लहरे सावन केश है।

गुंथित वेणी है घूमती, देखो पावन वेश है ।।


काजल ये नैनों में बसी, बिंदी सजती माथ है।

गजरा भी बालों में सजे, प्रीतम का जब साथ है।।


 अनिता मंदिलवार "सपना"

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कृष्णमोहन निगम सीतापुर


मुखिया हो चाहे गाँव का, कुनबे का या देश का।

पालन करना ही चाहिए, तुलसी के संदेश का।।


गुड़िया गुड़ियों से खेलती, आँगन भरती रंग थी।

निज पिय घर जाने  को खड़ी, कल तक सखियों संग थी।।


सूरज शशि बहु उड़ुगण अवनि,  कानन गिरि सरि मेघ नभ।

 खग मृग मोहक रचना सुभग, निशि वासर शुभ साँझ प्रभ।।


आदर निज जननी सा करे, पर तिय का जो भी सुजन।

निश्चय सब विधि कल्याण हो,.आये सुख उसके भवन।।


चेतन जड़ सब सविता बिना,रह ना सकें अस्तित्व में ।

कितनी अनुकम्पा है भरी, प्रभु के इसी कृतित्व में।।


कृष्णमोहन निगम सीतापुर

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कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


मारुति नंदन हे नाथ सुन, विनती  मेरी आज तो।

जगती से दुर्गत तुम हरो, सारो सारे काज तो।


काँसा अग्रज छाया चले,काँसा रोता रिक्त भी।

काँसा छुपता अब फिर रहा, काँसा करता तिक्त भी।

(1काँसा=कनिष्ठ 2,भिखारी का पात्र 3,काँसा धातु ।)


पनघट पर घट घूमा बहुत, जल *भर* डूबा ताल सौ।

पय ठंडा ही देता रहा, नमता चढ़ता भाल सौ।।


आँचल लहरा जब साँझ का, सिन्दूरी हो नभ खिला।

सूरज डूबा जा नींद में, यामा का पल्ला मिला।।


मधुबन महकी मधु मालती, गुंजन गाते गान *है* ।

गमकी गेंदा गुलदाउदी, तरुवर छेड़े तान *है* ।।


 घर के मुखिया रखते सदा, संयम का आचार है।

संकट की जब आती घड़ी,धीरज रखते धार है।।


अवसर बीता बचपन गया, गुड़िया से था खेलना।

भूला फूलों की क्यारियाँ, अब कांटों को झेलना।


मोहक नूतन रचना रचे, गुरुवर बांटे ज्ञान भी।

लेखन नवरस गागर भरा, उत्तमता की खान भी।।


जननी से ऊंचा पद नही, देखा घूमा सब जगत।

माँ के सम्मुख हरि राम भी, करते है मस्तिष्क नत।।


सविता ऊर्जा देता सदा, सविता औषध खान भी।

सविता ही गिरिजा नाथ है, धाता देते मान भी।

१सविता=सूरज,२ मदार, ३शिव

धाता = विष्णु


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

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इन्दु साहू, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)


घर के मुखिया मेरे पिता, रखते सबका ध्यान है।

सबको देते शिक्षा सदा, भरते हममें ज्ञान है।।


प्यारी गुड़िया रानी सदा, रहती मेरे संग है।

सारी बातें मेरी सुनें, जीवन का ये अंग है।।


करती माँ से मैं प्रार्थना, हर रचना में सार दो।

नित नूतन ही सीखूँ सदा, शब्दों का भंडार दो।।।


जननी जैसी कोई नहीं, ममता का आधार है।

माता के चरणों में सदा, नतमस्तक संसार है।।


सविता सी बनने की सदा, मन में रखना चाह तुम।

दृढ़ संकल्पों से ही यहाँ, पा जाओगे राह तुम।।


-इन्दु साहू,

रायगढ़ (छत्तीसगढ़)

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राधा तिवारी "राधेगोपाल"


हरती जो दुख सबके सदा, वह तो शुभदा मात हैं।

जो भी यूंँ पूजा कर रहे, खिलता उनका गात हैं।।


गहरी तो है सागर नदी, गहरा ही है प्यार अब।

सच्चाई से जो बोलता, है उसका संसार कब।।


भाषा तो सबकी ही हुई, जीने का अरमान है।

लेकिन भाषा तो हिंद की, हम सबका अभिमान है।।


मंगल से तो मंगल हुआ, सुनलो मेरी बात को।

दर्शन से अब हनुमान के,मिलता सुख दिन रात को।।


साबुन जैसे ही मीत को ,रखना अपने पास ही।

धोता है जो मन को सदा, बन कर रहता खास ही।।


राधा तिवारी "राधेगोपाल"

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पुष्पा विकास गुप्ता प्रांजलि कटनी मध्यप्रदेश


पकते जब मिलकर अन्न दो, पड़ता खिचड़ी नाम है। 

हल्का भोजन जब चाहिए, आती यह तो काम है।। 


मारुति नंदन विनती सुनो, हर लो जग की पीर सब। 

संकट मोचन तव नाम है, कहते हनुमत वीर सब।।


काँसा वह उत्तम धातु है, पूजन भोजन योग्य है। 

करते इसका उपयोग जो, देती यह आरोग्य है।। 


आँचल को लहराती हुई, शीतल पुरवाई चली। 

उपवन को देती ताजगी, सुरभित है हर कली।। 


हर उपवन मधुवन हो गया, आया जो मधुमास है। 

हैं मोहित, मन, मधुकर, मुकुल, अंतर अति उल्लास है।। 


पुष्पा विकास गुप्ता प्रांजलि कटनी मध्यप्रदेश

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अजय पटनायक


मारुति नंदन हनुमान प्रभु,विनती सुनलो नाथ जी।

वन्दन करता मैं सदा,रहना मेरे साथ जी।।


काँसा पीतल बर्तन हटे,पॉलीथिन का राज है।

दूषित खाना भगवन चढ़े,कलयुग आया आज है।।


पनघट पानी भरते सभी,करते चुगली रोज है।

नारी बातूनी है सुनो,क्या- क्या करती खोज है।।


उड़ता आँचल को देख शिशु,घूमे चारो ओर है।

करता मस्ती अटखेलियाँ,किलकारी का शोर है।।


मधुबन में झूमे मोरनी,भँवरा गाते गीत है।

फैले सौरभ मकरन्द है,लगते सबको मीत है।।


शुभदा होता जग में वही,संतति जिसके साथ है।

खुशियाँ चूमे उसके चरण,सारी दुनियाँ हाथ मे।।


गहरी तेरी दोस्ती सही,सबसे सुंदर यार है।

तुझसे ही मेरी दुनिया,मेरा तू संसार है।।


अपनी भाषा ही बोलिये,समझो उसके मोल को।

अंतर मन को लगते भले,बोलो मीठे बोल को।।


मंगलमय हो शुभ कामना,आया शुभ दिन आज है।

जीवन है खुशियों से भरा,सारे जग में राज है।।


धोकर साबुन से हाथ को,छूना भोजन थाल को।

कोरोना खतरा है बना,समझो इसके जाल को।।


अजय पटनायक

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चमेली कुर्रे 'सुवासिता' जगदलपुर बस्तर (छत्तीसगढ़)


निर्मल मन में ही सदा, ईश्वर करते वास है। 

खुशियाँ जीवन में मिले, बढ़ जाता विश्वास है।।


करुणा लज्जा ही बनी, नारी की पहचान है। 

दुष्टों के मन का भय यही, देते वे सम्मान है।।


मत उड़ना मनु आकाश में, पैसे के पर से कभी।

पर को पल में पल काट दे, गिरता जन नभ से तभी।।


भ्रम की बीमारी हो गयी, घर-घर जन बीमार है।

निज असि से नित मन चीरकर, ढूँढें क्यों उपचार है।।


सच्चाई की हर राह पर, बेटी चलना रोज तू। 

जीवन नैया डोले नहीं, शिक्षा से गुण खोज तू।। 


चमेली कुर्रे 'सुवासिता' जगदलपुर बस्तर (छत्तीसगढ़)

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सरोज दुबे 'विधा' रायपुर छत्तीसगढ़


संकट हरना सारी प्रभो, रखना मेरी लाज तुम।

वंदन करती कर जोड़ कर, पूरा करना काज तुम।।


शुभदा देवी माँ शारदा, विद्या का भंडार दो।

सद गुण सन्मति हिय में भरो, ऐसा माँ आचार दो।।


कटु बोली गहरी चोट दे, हिय को दे फिर चीर वो।

सीने से फिर सिलता नहीं, देती है बस पीर वो।।


अपनी भाषा हिंदी सरल, लगती है आसान ये।

करते हैं इसका मान हम, भारत की है शान ये।।


कड़वी बोली मत बोलिए, मन होता आघात फिर।

मीठी बोली ही बोलिए, चाहे कम हो बात फिर।।


सरोज दुबे 'विधा' रायपुर छत्तीसगढ़

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शरद अग्रवाल 'नव्या'


खुशियां मिलती आंचल तले, ईश्वर का उपहार  माँ।

खुशियों की वह खान है, ममता का भंडार माँ।।


वृन्दावन लीला श्याम की, राधा की पायल बजे।

मुरली मधुबन में बज रही, गोपी यमुना तट सजे।।


पनघट तो प्यासा ही रहे, पनिहारी मन पीर है।

देखे प्यासे उसके नयन, गागर नैना नीर है।।


बड़के का सिर पर हाथ हो, कांसा फूलों सा खिले।

भाईचारा ममता बढे, जीवन समरसता मिले।।


मारुति नंदन हनुमान जी, बलशाली विद्वान हैं।

संकट काटें पीड़ा मिटे, देवों में बलवान हैं।।


--- शरद अग्रवाल 'नव्या'

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डॉ ओमकार साहू "मृदुल"


यमुना तक्षक दूषित करे, जनमानस विष व्याप्त है।

नटवर नाथे अहि कालिया, जो श्रापित अभिशाप्त है।।


रामायण की रोचक कथा, मन वांछित सुखधाम है।

माता भ्राता, भार्या सखा, मर्यादित श्रीराम है।।


नभचर दल अंबर में उड़े, पंखों को आकार दे।

आशान्वित है नित खोज में, स्वप्नों को विस्तार दे।।


लक्ष्मणजी रेखा खींचते, निकले भ्राता खोज में।

रावण बनकर बहुरूपिया, भिक्षा माँगे भोज में।।


माता पितृ चरणों में लगे, चारों तीरथ धाम है।

उत्त्तम सेवा पग पूजना, ज्यों दशरथ के राम है।।


डॉ ओमकार साहू "मृदुल"

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अर्चना पाठक'निरंतर'


 शुभदा विद्या का दान दो, भर दो झोली ज्ञान से।

 मन में खुशियाँ बढ़ती रहें, नित दिन इसका भान दो।।


गहरी लग जाये चोट तो, तन भर लेता है इसे ।

जब मन की नैया डूबती , फिर कैसे खेता  इसे।।


भाषा कहती है भाव को, कह लो मन की बात ये।

संप्रेषण जब सच्चा रहे ,पहुँचे सबकी गात ये ।।


मंगल की करती कामना ,शेरों वाली आ रही ।

करतल ध्वनि से स्वागत करो, माता वर बरसा रही।।


साबुन अति निर्मल तन करे, करता रोगों का नाश ये।

  मन भी हर्षित हो रहा,  सस्ता होवे काश ये।।


अर्चना पाठक'निरंतर'

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डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव 'मंजुल'


कोरोना का काल यह,संकट है विकराल।

मानव ने ही रच दिया,मानव  हित यह जाल।।


 जीवन  राहों में भरे,संकट कंटक संग।

संघर्षों से जीतिये,चाहे डसें भुजंग।।


संकट से हो सामना,शक्ति बढ़े अपार।

सोया साहस जागता, करिये स्वयं विचार।।


माता जब भी देखती,संकट में संतान।

बनकर ममता  शेरनी  ,करती सदा निदान।।


पितुश्री घर की छाँव हैंं,सहते संकट रोज।

अंधड़ ओले झेलते,मुख पर रहता ओज ।।


डॉ मंजुला हर्ष श्रीवास्तव 'मंजुल'

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परमजीत सिंह कोविद ,कहलूरी


घर का मुखिया कड़वा सही, रखता सबको जोड़ कर।

मुखिया बिन परिवारिक कलह, रख देती झंजोड़ कर।।

 

नन्हीं गुड़िया जिस घर वहां, मां देवी का वास हो।

बिन मांगे ही सबकुछ मिले, सुख सुविधा की आस हो।।


हर रचना ईश्वर ने रची, सबकी निज पहचान है।

अपना करते सब काम वो, दुनिया की बन शान है।।


 जननी की जय गाओ सदा, दुख सहती संतान का।

पूजा नित वंदन करो, फलदायक सोपान का।।


हे सविता तेरी लालिमां, सारी दुनियां लोर में।

नव आशाएं भी जग रही, पंछी क्रंदन भोर में।।


यमुना तट बजती बांसुरी, लहरें भी क्रंदन करें।

कान्हा के नन्हे पांव को, सब वासी वंदन करें।।


रोचक मनभावन गीत से, गूंजे वृंदावन गली।

भक्तों के कटते कष्ट सब, भारी हर विपदा टली।।


अंबर में तारे घूमते, नूतन आशा को जगा।

सूरज बनता फिर रत्न है, तम अंधेरे को भगा।।


रेखा मेरी अर्धांगिनी, रेखा सीमा बांधती।

रेखा कागज पर खींचते, हथ मस्तक को लांघती।।


तीरथ यात्रा पावन बने, शुभ कर्मों का योग हो।

कर पूरे सेवा भाव से, सुख सुविधा का भोग हो।


परमजीत सिंह कोविद, कहलूरी

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