Thursday 1 December 2022

चाक पूजन का महत्त्व : संजय कौशिक 'विज्ञात'


 चाक पूजन का महत्त्व : 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

आज एक सामाजिक परम्पराओं की मान्यताओं के सम्बंध में एक शिष्य ने प्रश्न किया उनकी जिज्ञासा थी कि लोग कह रहे हैं आपके पास पैसा बहुत है ... धनी हैं आप तो ... ऐसे में स्टील नहीं, सोने-चाँदी के बर्तन घर में लगा सकते हैं। तो आप अपने बेटे की शादी के अवसर पर कुम्हार के घर जाकर चाक पूजन का वाह्यात सा कार्य मत करें ....
वैसे भी अब तो स्टील का युग है ये तो उस समय का ढर्रा है जिस समय के रिवाज हैं जब लोगों के पास पानी संचित करने के साधन नहीं हुआ करते थे। आप तो साधन संपन्न हैं ऐसे में आपको क्या आवश्यकता है चाक पूजन जैसे निम्न वर्गीय कार्य करने की ... अब मार्गदर्शन की अपेक्षा से जिज्ञासु आया तो कुछ बातें मैंने उन्हें बताई प्रस्तुत है उसका सारांश ....

वैवाहिक जैसे मांगलिक कार्यों में चाक पूजने के कारण ... 
परंपरागत - भारत देश रीति-रिवाजों का देश है विशेषकर हिन्दू समाज रीति-रिवाज प्रधान समाज है ये रीति रिवाज तथा परम्पराएँ ही असली पुरातन पद्धति तथा आर्यव्रत कहो या विश्वगुरु भारत का परिचय विश्व पटल पर देते हैं।
इन परंपराओं को मात्र ढर्रा कहने वालों को अपनी शिक्षा के मद में अपनी पहचान, अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति तथा संस्कारों की बलि देते प्रतीत हो रहे समाज के लिए मुझे आज उनकी नूतन धारणाओं के खंडन हेतु बोलना पड़ रहा है इसीलिए आज बहुमूल्य समय में से अतिबहुमूल्य समय निकाल कर तूलिका चलानी पड़ी शिक्षित समाज जो परंपराओं को ढर्रा बताते हैं और इनमें लाभ तथा हानि ढूँढ़ते हुए समय की बर्बादी बताते हैं उन्हें इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि स्वयं की पहचान न बना सको तो पूर्वजों की पहचान पर धूल मत फेरो। 
आस्थागत:- जहाँ एक कच्ची मिट्टी की (डळी) कंकर को गणेश मानकर पूजा जाता है यह वही भारत है जहाँ की आस्था गंगा जल जैसी पवित्र तथा वज्र जैसी अभेद्य रही हैं जो सतयुग द्वापर तथा त्रेता सहित 27 कलियुगों से खंडित नहीं हो पाई। पर पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव आज इन सभी सशक्त परम्पराओं को खोखला, निराधार तथा ढर्रा बता रहा है।
प्रजापति ब्रह्म स्वरूप पूजन :- चाक प्रजापति ब्रह्मस्वरूप माने जाते हैं उनकी पूजा करके उनके आशीर्वाद से वैवाहिक कार्य सम्पन्न हो तथा नव युग्ल भी ब्रह्मा के सृष्टि क्रम को गति देने में अपना सहयोग दे इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रजापति ब्रह्मा तथा उनके प्रतीक चाक कुम्हार के घर रक्खे चाक को पूजा जाता है ताकि उनके आशीर्वाद से वैवाहिक कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो। तथा नव दंपत्ति भी सृष्टि के विकास में सहयोग दे सके।  जिस प्रकार कुम्हार का चाक लोक कल्याण हेतु चलता है नव दंपत्ति भी अपने कल्याण भाव से हटकर समाज कल्याण को ही सर्वप्रथम अग्रणी रक्खें।

घट का महत्त्व:- प्रजापति ब्रह्मा स्वरूप चाक से निर्मित कलश जो कुबेर का प्रतीक है कुबेर माता लक्ष्मी की तरह सर्वजन को प्रिय होते हैं। जिनकी कृपा दृष्टि से धन कोश, सुख समृद्धि में वृद्धि होती है उनके आशीर्वाद तथा कुबेर के प्रतीक नूतन अथवा कोरे कलश को वैवाहिक जैसे मांगलिक कार्यों में सुहागिन महिलाओं द्वारा परंपरागत तरीके से हर्षोल्लास के साथ गीत गाते हुए वैवाहिक मांगलिक स्थल पर लाया जाता है। ताकि उनकी कृपा दृष्टि बनी रहे। 

जल संचय का साधन:- कलश मात्र जल संचय का साधन नहीं है। यह तो पहले भी किसी युग में नहीं रहा है। आधुनिक काल में स्टील तथा प्लास्टिक के टैंकों ने जल संचय के साधन बना दिये हैं इसलिए कलश का महत्त्व नहीं घट सकता प्राचीन काल में भी धातुओं के बड़े बड़े बर्तन हुआ करते थे पीतल के तांबे के लोहे के जैसे कड़ाहे देखे भी होंगे किसी न किसी ने और यदि नहीं देखे तो बुजुर्गों की संगत करो अल्प बुद्धि में ज्ञान की ज्योति अवश्य प्रकाशित हो सकेगी। 

वैज्ञानिक कारण :- किसी भी धातु में रक्खे जल से मिट्टी के कलश अथवा घट में रक्खे जल का टीडीएस 350 से ऊपर नहीं जाता जहाँ जल का टीडीएस 550 हो जो हानिकारक है 

अब यदि आरओ के फिल्टर पानी के टीडीएस की बात करें तो यह 100 के लगभग होता है जबकि इतने टीडीएस वाले पानी में प्लास्टिक के तथा स्टील के अंश घुल के आने लग जाते हैं । जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं।मिट्टी के कलश में जल का संतुलन बनता है। 
पोषक तत्व कम हैं तो बढ़ते है और अधिक हैं तो वह कलश सोख लेता है। मिट्टी के कलश स्वास्थ्य के लिए वरदान हैं।

जैसे मिट्टी के तवे पर रोटी बनाना ये रोटी शुगर को कंट्रोल करती है, लिवर को सुरक्षित रखती है और जल्दी पचती भी है इस प्रकार से पाचन तंत्र को भी सुरक्षा प्रदान करती है।

अंत में इतना ही कहूँगा कि प्रथा या परम्परा कोई गलत नहीं है। गलत तथा दूषित पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से उपजी मानसिकता ही है और मूर्खों के सींग नहीं होते .... 
आप या मैं भी सींग वाले प्राणी नहीं हैं 
अतः सावधान रहें और अपने विवेक से तर्क वितर्क स्वयं करें इसे मंथन कहेंगे और सीधे अपना मत देंगे या अब भी निराधार, खोखली प्रथा, मूर्खों के ढोंग या ढर्रा ही कहेंगे तो अदृश्य सींग के प्राणियों से निवेदन है कुतर्क से बचें ....
परम्परा स्थान विशेष की पृथक हो सकती है। जैसे कुछ स्थान पर चकरी पूजते हैं जिस पर आटा पीसते हैं। और कलसा पूजा जाता है जो कुम्हार के यहाँ से आता है।

वैसे शादी की परंपरा भी बहुत पुरानी हो चुकी है। लाभ न होता तो बुद्धिजीवी लोग ये भी न करते... 

संजय कौशिक 'विज्ञात'